बुधवार, 27 अगस्त 2014

#daduji 

सीकरी प्रसंग दशम दिन 
दशवें दिन तुलसी ब्राह्मण प्रातःकाल ही दादूजी के पास आया और बोला- आज बादशाह तुम्हारे से अतिरुष्ट है, आप उनकी सेवा करो । इत्यादिक अनेक बातें कहकर दादूजी को डराना चाहा किन्तु दादूजी उसकी बातों से लेश मात्र भी नहीं डरे और ~
३९१. समर्थ लीला । तिलवाड़ा
ऐसो राजा सेऊँ ताहि, और अनेक सब लागे जाहि ॥ टेक ॥
तीन लोक ग्रह धरे रचाइ, चंद सूर दोऊ दीपक लाइ ।
पवन बुहारे गृह आँगणां, छपन कोटि जल जाके घरां ॥ १ ॥
राते सेवा शंकर देव, ब्रह्म कुलाल न जानै भेव ।
कीरति करणा चारों वेद, नेति नेति न विजाणै भेद ॥ २ ॥
सकल देवपति सेवा करैं, मुनि अनेक एक चित्त धरैं ।
चित्र विचित्र लिखैं दरबार, धर्मराइ ठाढ़े गुण सार ॥ ३ ॥
रिधि सिधि दासी आगे रहैं, चार पदारथ जी जी कहैं ।
सकल सिद्ध रहैं ल्यौ लाइ, सब परिपूरण ऐसो राइ ॥ ४ ॥
खलक खजीना भरे भंडार, ता घर बरतै सब संसार ।
पूरि दीवान सहज सब दे, सदा निरंजन ऐसो है ॥ ५ ॥
नारद गावें गुण गोविन्द, करैं शारदा सब ही छंद ।
नटवर नाचै कला अनेक, आपन देखै चरित अलेख ॥ ६ ॥
सकल साध बाजैं नीशान, जै जैकार न मेटै आन ।
मालिनी पुहुप अठारह भार, आपण दाता सिरजनहार ॥ ७ ॥
ऐसो राजा सोई आहि, चौदह भुवन में रह्यो समाहि ।
दादू ताकी सेवा करै, जिन यहु रचिले अधर धरै ॥ ८ ॥
उसे सुनाकर अपनी निर्भयता का पिरचय उसे दिया । उक्त पद सुनकर तुलसी ब्राह्मण ने कहा -
यहां ज्ञान जानें नहीं, तुमको देशी मार ।
कै को हजरत शरण लो, नांहिं भागो ढूंढार ॥
तुलसी का उक्त वचन सुनकर दादूजी ने अपनी निष्ठा बताने को ~
२५१. झपताल
हरि भजतां किमि भाजिये, भाजे भल नांहीं ।
भाजे भल क्यूँ पाइये, पछतावै मांहीं ॥ टेक ॥
सूरा सो सहजैं भिड़ै, सार उर झेलै ।
रण रोकै भाजै नहीं, ते बाण न मेलै ॥ १ ॥
सती सत साचा गहै, मरणे न डराई ।
प्राण तजै जग देखतां, पियड़ो उर लाई ॥ २ ॥
प्राण पतंगा यों तजै, वो अंग न मोड़ै ।
जौवन जारै ज्योति सूं, नैना भल जोड़ै ॥ ३ ॥
सेवक सो स्वामी भजै, तन मन तजि आसा ।
दादू दर्शन ते लहैं, सुख संगम पासा ॥ ४ ॥
सुनाया उक्त पद सुनकर तुलसी ब्राह्मण अपनी आशा को अपूर्ण जान कर लौट गया । बादशाह ने कुसंग के प्रभाव से प्रभावित होकर दादूजी की शक्ति देखने की योजन बनाई । अपने दरबार को पूर्णरुप से भर जाने पर वीरबल के द्वारा, दादूजी की बुलवाया । वीरबल दादूजी की योगशक्ति को जानता था, अतः उसे अकबर के षड्यंत्र से कु़छ भी चिन्ता नहीं थी । दादूजी ने अपनी योग शक्ति से अकबर बादशाह का षड्यंत्र पहले ही जान लिया था, फिर दादूजी ने प्रभु का ध्यान किया तब ध्यान में प्रभु की आज्ञा मिल गई कि तुम बादशाह के दरबार में निशंक जाओ । दादूजी ने वीरबल को कहा- तुम चलो, हम आते हैं । वीरबल ने जाकर सूचना दी उसी समय दादूजी भी कु़छ शिष्यों के साथ दरबार में पहुंच गये । दादूजी ने वहां की स्थिति देखकर प्रभु से कहा -
ज्यों यहु समझै त्यों कहो, यहु जीव अज्ञानी ।
जेती बाबा तैं कही, इन इक न मानी ॥ २७ ॥
जेती परचा (चमत्कार) मांगे लोक सब, कह हम को कु़छ दिखलाय ।
समर्थ मेरा सांइयां, ज्यों समझे त्यों समझाय ॥ २७ ॥
( समर्थता अंग २१ )
उक्त साखियां उच्चारण करते ही ईश्वर ने दरबार के मध्य आकाश में तेज पुंजमय एक तखत स्थित करके दादूजी को उस पर बैठा दिया और शिष्यों को दादूजी के पी़छे तखत पर खड़ा कर दिया । वह तखत पृथ्वी को स्पर्श नहीं कर रहा था । बादशाह के सम्मुख अधर आकाश में स्थित सबको दूसरे सूर्य के समान भास रहा था । उसे देखकर अकबर बादशाह अपने तख़त से नीचे उतर कर पृथ्वी पर आकर बोला- करामात कहर (भयंकर) है भारी । काजी मुल्ला आदि भी बोले - हम मुरीद तुम पीर हमारे । फिर तेजोमय तख़त अदृश्य हो गया । दादूजी बादशाह के तख़त पर विराज गये । उसे अद्भुत चमत्कार से बादशाह का अज्ञानांधकार नष्ट हो गया । उसने कहा- मेरी आशा पूर्ण हो गई, मानो मुझे खुदा ही मिल गये । मैंने काजी मुल्लाओं के कहने से भ्रम में पड़कर यह सब किया था किन्तु अब मैं आपको गुरु ही मानता हूं । तब दादूजी ने कहा -
चोर न भावे चांदणा, जनि उजियारा होय । 
सुते का सब धन हरुं, मुझे न देखे कोय ॥ १६८॥
सूरज साक्षी भूत है, सांच करे सु प्रकाश । 
चोर डरे चोरी करे, रैणि तिमिर का नाश ॥ १६७ ॥
( साँच अंग १३)
फिर बादशाह अकबर ने दादूजी की स्तुति की ।

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