शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

७. विश्वास का अंग ~ १

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*७. विश्वास का अंग* 
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*इन्दव छन्द -*
*होहि निचिंत करै मन चिंत हि,* 
*चंच दई सोई चिंत करैगौ ।* 
*पांव पसारि पर्यो किन सोवत,* 
*पेट दियौ सोइ पेट भरैगौ ॥* 
*जीव जिते जल के थल के पुनि,* 
*पाहन मैं पहुंचाइ धरैगौ ।* 
*भूख ही भूख पुकारत है नर,* 
*सुन्दर तूं कहा भूख मरैगौ ॥१॥* 
*तेरा स्रष्टा ही तेरी चिन्ता करेगा* : तूँ निश्चिन्त हो जा, कोई चिन्ता न कर; क्योंकि जिसने चौंच दी है, वही तुझे भोजन देने की भी चिन्ता करेगा । 
तूँ पैर पसार कर क्यों नहिं सोता, जिस प्रभु ने यह पेट दिया है वही इस को(खाद्य पदार्थ से) भरने का भी प्रयास करेगा । 
इस संसार में जल या स्थल में रहने वाले जितने भी जीव हैं उन की बात तो छोड़, अपितु इतना समझ ले कि वह प्रभु तो पत्थर में रहने वाले जीवों के हेतु भी खाद्य का प्रबन्ध कर देता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - अरे मूर्ख प्राणी ! क्यों तूं 'भूखा हूँ', 'भूखा हूँ' चिल्ला रहा है ! उस दयालु प्रभु के रहते हुए तूँ भूखा कैसे मर सकताहै ? ॥१॥
(क्रमशः)

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