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卐 सत्यराम सा 卐
७२. राज मृगांक ताल
नीके राम कहत है बपुरा ।
घर मांही घर निर्मल राखै,
पंचों धोवै काया कपरा ॥टेक॥
सहज समर्पण सुमिरण सेवा,
तिरवेणी तट संजम सपरा ।
सुन्दरी सन्मुख जागण लागी,
तहँ मोहन मेरा मन पकरा ॥१॥
बिन रसना मोहन गुण गावै,
नाना वाणी अनुभव अपरा ।
दादू अनहद ऐसे कहिये,
भक्ति तत्त यहु मारग सकरा ॥२॥
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साभार : Pravesh K. Singh ~
“...जीवात्मा के ऊपर चार जड़ शरीर हैं| इसी के लिए संत कबीर साहब के वचन में ‘घूँघट’ शब्द आया है| इन चारों को खोल दें, तो फिर ईश्वर-दर्शन में कोई रुकावट नहीं| इसी को गुरु नानक साहब दूसरी तरह से कहते हैं –
घरि महि घरि देखाइ देइ
सो सतगुरु परखु सुजाणु |
स्थूल में सूक्ष्म, सूक्ष्म में कारण और कारण में महाकारण व्यापक है| इसी को संत दादू दयालजी ने कहा है –
घर माहैं घर निर्मल राखै,
पंचौं धोवै काया कपरा |
घर में घर को पवित्र रखो और पाँचो कायरूप कपडों को धो डालो| स्थूल की पवित्रता बाहरी शौच और अंतःकरण की शुद्धता से होती है| स्थूल की लपेट सूक्ष्म पर से उतर गयी, सूक्ष्म पवित्र हो गया| इसी प्रकार कारण और महाकारण के सम्बन्ध में समझिये| चेतनमय शरीर तब धुल गया, जब महाकारण उस पर से उतर गया| कहने का ढंग अलग-अलग है, किन्तु सब हैं एक तरह| जैसे कई बाजाओं के तारों को एक समान कसकर रखिये, तो सबसे एक ही तरह की ध्वनि निकलेगी| मालूम होता है की इन सब संतों ने एक ही तरह की आत्मोन्नति की थी और एक ही तरह की साधना की थी| केवल कहने का ढंग अलग-अलग है| इन शरीर-रुपी कपड़ों से, घूँघट से जो अपने को नहीं निकलता, वह घर में घर को नहीं देखता और वह ईश्वर को कभी नहीं पा सकता|”
– महर्षि मेंहीं परमहंस
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