रविवार, 31 अगस्त 2014

७. विश्वास का अंग ~ ३

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*७. विश्वास का अंग* 
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*नैकु न धीरज धारत है नर,*
*आतुर होई दसौं दिस धावै ।*
*ज्यौं पसु खैंचि तुड़ावत बंधन,*
*जौ लग नीर न आवै ही आवै ॥* 
*जानत नाहिं महामति मूरख,*
*जा घर द्वार धनी पहुंचावै ।* 
*सुन्दर आपु कियौ घड़ि भाजन,*
*सो भरि है मति सोच उपावै ॥३॥* 
*देहपात्र का रचयिता ही उसका पूरयिता* : हे नर ! तूँ कुछ तो धैर्य धारण कर ! क्यों व्यर्थ दुःखी होता हुआ इधर उधर दौड़ रहा है । 
जैसे किसी पशु के सामने जब तक चारा(खाद्य) न आ जाय तब तक वह अधीर होकर अपना बन्धन तुड़ाता रहता है । 
अरे महामति(अधिक बुद्धि वाले) मूर्ख ! तूँ यह क्यों नहीं समझता कि जिस प्रभु(संसार के स्वामी) ने तुझे यह घर द्वार दिया है वही तेरे लिये भोजन का भी प्रबन्ध करेगा । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - जिसने यह सुन्दर देहपात्र रचा है वही इसे भरने(रक्षा करने) का भी उपाय करेगा । अतः तूँ इस विषय में सोच सोच कर दुःखी न हो ॥३॥
(क्रमशः)

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