सोमवार, 1 सितंबर 2014

= ७९ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
पंडित, राम मिलै सो कीजे ।
पढ़ पढ़ वेद पुराण बखानैं, 
सोई तत्त्व कह दीजे ॥टेक॥
आतम रोगी विषम बियाधी, 
सोई कर औषधि सारा ।
परसत प्राणी होइ परम सुख, 
छूटै सब संसारा ॥१॥
ए गुण इन्द्री अग्नि अपारा, 
ता सन जलै शरीरा ।
तन मन शीतल होइ सदा सुख, 
सो जल नहाओ नीरा ॥२॥
सोई मार्ग हमहिं बताओ, 
जेहि पंथ पहुँचे पारा ।
भूलि न परै उलट नहीं आवै, 
सो कुछ करहु विचारा ॥३॥
गुरु उपदेश देहु कर दीपक, 
तिमिर मिटे सब सूझे ।
दादू सोई पंडित ज्ञाता, 
राम मिलन की बूझे ॥४॥
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लोग ज़िंदगी भर ग्रंथों-पोथियों का नियम सहित पाठ करते हैं, वे धुरंधर पंडित, अक्ली पहलवान, बौद्धिक उस्ताद या ज्ञानी तो बन जाते हैं | संस्कृत के बड़े-बड़े श्लोक, लम्बे-चौड़े लेक्चर सुन लो, पर क्या उनमें नाम-मात्र भी आत्म-ज्ञान होता है ? वे आत्मिक जीवन से पूरे कोरे रहते हैं अगर उनका किसी पूर्ण गुरु से सम्बन्ध नहीं हुआ | आसा की वार में गुरु नानक साहिब साफ़-साफ़ शब्दों में ऐसे वाचक ज्ञानी के बारे में यह फरमाते हैं:
पड़ि पड़ि गडी लदीअहि पड़ि पड़ि भरीअहि साथ ॥
पड़ि पड़ि बेड़ी पाईऐ पड़ि पड़ि गडीअहि खात ॥
पड़ीअहि जेते बरस बरस पड़ीअहि जेते मास ॥
पड़ीऐ जेती आरजा पड़ीअहि जेते सास ॥
नानक लेखै इक गल होरु हउमै झखणा झाख ॥१॥ 
(SGGS 467)
You may read and read loads of books; you may read and study vast multitudes of books. You may read and read boat-loads of books; you may read and read and fill pits with them. You may read them year after year; you may read them as many months are there are. You may read them all your life; you may read them with every breath. O Nanak, only one thing is of any account and that is getting a perfect master: everything else is useless babbling and idle talk in ego. 
यह ज्ञान तुम्हारे अन्दर है | जब तक 'अन्दर जाने का रहस्य' या जड़-चेतन की गाँठ खोलने का तरीका नहीं पता चलेगा, तो तुम इससे वंचित रहोगे | यदि आत्म-ज्ञान पुस्तक में होता तो ये आलिम-फाजिल, विद्वान-पंडित सब आत्म-ज्ञानी हो जाते | चाहे वे स्वयं किताबों की लाईब्रेरी ही क्यों न बन जायें, पर ईंट-पत्थर के मकान की तरह जड़ ही रहेंगें | दिमाग में किताब लदी हुई हैं, संस्कृत के श्लोक घुसे हुए हैं, गधों की तरह पीठ पर चन्दन का भार लदा हुआ है, पर वे उसकी खुशबू से बेखबर हैं | करछी दिन-रात हलवे की कढाई में रहती है पर वह उसके स्वाद से बेखबर है | इस किताबी और इल्मी ज़माने में जहाँ इन्टरनेट के बटन दबाने पर कितना ही ज्ञान समेट लो, पर तुमको कितने ज्ञानी नज़र आ रहे हैं | अपने धर्म को सबसे बड़ा बताना और दूसरे के धर्म को फ़ालतू; दूसरे धर्मों में आये सन्त-महात्माओं पर कीचड उछालना, क्या ये सब ज्ञान का प्रतीक है ? 
जब कभी भी सन्त-सतगुरु परमात्मा के हुक्म से इस दुनिया में आते हैं, रूहानियत का ज़लवा लेकर आते हैं और परमार्थ का प्रवाह आ जाता है | अनगिनत लोग रंगें जाते हैं और उनका जीवन राममय हो जाता है | आत्मा की जाग्रति केवल विकसित और मुक्कमल आत्मा से ही नसीब होती है जिसे उस परवरदीगार की मंजूरी होती है | इल्मी गुरु यह काम नहीं कर सकते | इंसान हज़ार आलिम(विद्वान) और बुद्धिवाला क्यों न हो, पर जब तक स्वयं उसके अन्दर आत्मिक योग्यता नहीं, वह दूसरे के अन्दर आत्म-ज्ञान को नहीं चैतन्य कर सकेगा | बातें करना, आत्म-ज्ञान के विषय में भाषण देना, बहुत सरल है पर आत्मिक जीवन व्यतीत करना और बात है | केवल बाहरी विद्या से कोई परमार्थी नहीं बन जाता, वह तो भाँड के समान नक़ल करने वाला है, उससे परमार्थ की आशा करना व्यर्थ है |

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