🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷 *#श्रीदादूवाणी०प्रवचनपद्धति* 🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
*सीकरी प्रसंग ४० वां दिन -*
.
दादूजी के पास लाया । वह १० वें दिन तेजोमय तख़त देखकर मूर्छित हुआ था । तब से एक मास तक बीमार था । कारण वह दादूजी से अधिक ईर्ष्या करता था । अतः ४० वें दिन आकर उसने दादूजी से क्षमा माँगी । दादूजी ने कहा - मैं तो क्रोध करता ही नहीं । यह तो तुम्हारे ही पाप का फल तुमको मिला है । फिर दादूजी ने तुलसी ब्राह्मण को कहा -
.
साधू निर्मल मल नहीं, राम रमै सम आय ।
दादू अवगुण का़ढि कर, जीव रसा तल जाय ॥२॥
(निन्दा अंग ३२)
सूना घट सोधी नहीं, पंडित ब्रह्मा पूत ।
आगम निगम सब कथै, घर में नाचे भूत ॥८७॥
(साँच अंग १३)
शूकर श्वान सियाल सिंह, सर्प रहै घट मांहि ।
कुंजर कीड़ी जीव सब, पांडे जाणे नांहि ॥९॥
(सूक्ष्म ज. अंग ११)
उक्त उपदेश सुनकर तुलसी ब्राह्मण ने कहा - अब मैं आपकी शरण हूं । जिस से मेरा कल्याण हो वही उपाय बताइये ? तब दादूजी ने उसे ३९० का पद -
.
३९०. समर्थाई । प्रतिपाल
ऐसो अलख अनंत अपारा, तीन लोक जाको विस्तारा ॥टेक॥
निर्मल सदा सहज घर रहै, ताको पार न कोई लहै ।
निर्गुण निकट सब रह्यो समाइ, निश्चल सदा न आवै जाइ ॥१॥
अविनाशी है अपरंपार, आदि अनंत रहै निरधार ।
पावन सदा निरंतर आप, कला अतीत लिप्त नहिं पाप ॥२॥
समर्थ सोई सकल भरपूर, बाहर भीतर नेड़ा न दूर ।
अकल आप कलै नहीं कोई, सब घट रह्यो निरंजन होई ॥३॥
अवरण आपै अजर अलेख, अगम अगाध रूप नहिं रेख ।
अविगत की गति लखी न जाइ, दादू दीन ताहि चित्त लाइ ॥४॥
.
उक्त पद सुनकर कहा - इसके अनुसार साधन करो, तुम्हारा कल्याण होगा । अब अकबर बादशाह को कहो कि तुमको कु़छ पू़छना होतो पू़छ लो, अब हम यहां से विचरने का विचार करते हैं । तुलसी ब्राह्मण ने जाकर बादशाह को कह दिया । अकबर ने आकर कहा - भगवन् ! अब मैं आपकी कृपा से संशय रहित हूँ, आप जाने का विचार क्यों करते हैं ? आपको यहाँ क्या कष्ट है ? आपकी आज्ञा अनुसार यहां सब व्यवस्था हो जायेगी । आपके ॠण से तो दिल्ली का राज्य आपके भेंट करके भी नहीं छूट सकता । दादूजी ने कहा - आप कहते जितनी इच्छा हो उतनी संपत्ति लेकर दान करो सो तो -
करता होकर कु़छ करे, उस मांहिं बँधावे ।
दादू उसको पूछिये, उत्तर नहीं आवे ॥११॥
(साक्षी भूत अंग ३५)
माया का गुण बलकरे, आपा ऊपजे आय ।
राजस तामस सात्विकी, मन चंचल हो जाय ॥२॥
(उपजन अंग २८)
माया से मन बीगड़ा, ज्यों कांजी कर दुद्ध ।
है कोई संसार में, मन कर देवे शुद्ध ॥२२॥
माया मगहर खेत खर, सदगति कदे न होय ।
जे बचे ते देवता, राम सरीखे सोय ॥४९॥
(माया अंग १२)
.
उक्त उपदेश सुनकर अकबर ने कहा - हमारी सेवा तो आप कु़छ भी स्वीकार नहीं करते हैं ? तब दादूजी ने कहा - आप के पास कनकादि हैं, इन का ग्रहण साधु के भजन में विघ्न डालने वाला है । आप हमारी सेवा करना ही चाहते हैं तो - सर्वप्राणियों पर दया करो, परमात्मा का भजन करो परोपकार के कार्य करो, यही हमारी सेवा है । दादूजी ने अकबर से कु़छ भी नहीं लिया । ४१ वें दिन राजा वीरबल दादूजी को अपने महल में ले गया । बहुत धन भेंट करने लगा किन्तु दादूजी ने उसे दीक्षा तो दी पर भेंट कु़छ भी नहीं ली ।
.
फिर ३८४ के पद -
३८४. उपदेश । त्रिताल
जप गोविन्द, विसर जनि जाइ, जनम सुफल करिये लै लाइ ॥टेक॥
हरि सुमिरण सौं हेत लगाइ, भजन प्रेम यश गोविन्द गाइ ।
मानुष देह मुक्ति का द्वारा, राम सुमिर जग सिरजनहारा ॥१॥
जब लग विषम व्याधि नहिं आई, जब लग काल काया नहिं खाई ।
जब लग शब्द पलट नहीं जाई, तब लग सेवा कर राम राई ॥२॥
अवसर राम कहसि नहीं लोई, जनम गया तब कहै न कोई ।
जब लग जीवै तब लग सोई, पीछै फिर पछतावा होई ॥३॥
सांई सेवा सेवक लागे, सोई पावे जे कोइ जागे ।
गुरुमुख भरम तिमर सब भागे, बहुरि न उलटे मारग लागे ॥४॥
ऐसा अवसर बहुरि न तेरा, देख विचार समझ जिय मेरा ।
दादू हार जीत जग आया, बहुत भांति कह - कह समझाया ॥५॥
.
उक्त पद से उपदेस किया । फिर आमेर नरेश भगवतदास को सुख प्रदान करके दादूजी ने आमेर नरेश को कहा - कल हम यहां से प्रस्थान कर जायेंगे । तब राजा ने अकबर बादशाह तथा वीरबल को सूचना दे दी ।
अकबर आया और बोला - अब आप तो पधार ही जायेंगे किन्तु आप हम पर दया तो अवश्य रखना । दादूजी ने कहा - जब तक आप सब जीवों पर दया रखेंगे तब तक परमेश्वर भी आप पर दया अवश्य रखेंगे । फिर कहा - यह उपदेश सदा याद रखना -
.
*दया धर्म का रुंखड़ा, सत से बधता जाय ।*
*संतोष से फूले फले, दादू अमर फल खाय ॥१६॥*
(बेली अंग ३६)
फिर प्रस्थान करते समय १७३ के पद से सब को उपदेश किया ।
१७३. निस्पृहता पंजाबी । त्रिताल
राम सुख सेवक जानै रे, दूजा दुख कर माने रे ॥टेक॥
और अग्नि की झाला, फंद रोपे हैं जम जाला ।
सम काल कठिन शर पेखें, यह सिंह रूप सब देखें ॥१॥
विष सागर लहर तरंगा, यहु ऐसा कूप भुवंगा ।
भयभीत भयानक भारी, रिपु करवत मीच विचारी ॥२॥
यहु ऐसा रूप छलावा, ठग पासीहारा आवा ।
सब ऐसा देख विचारे, ये प्राण घात बटपारे ॥३॥
ऐसा जन सेवक सोई, मन और न भावै कोई ।
हरि प्रेम मगन रंग राता, दादू राम रमै रस माता ॥४॥
.
फिर सीकरी से प्रस्थान कर गये ।
सीकरी की प्रसंग कथायें यहां संक्षेप में कही हैं जिनको विस्तार से जानना ही वे श्रीदादूचितामृत के सीकरी सत्संग के ४० दिन का प्रसंग देख सकते हैं । ग्रन्थ वृद्धि के भय से यहां संक्षिप्त ही लिखा गया है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें