गुरुवार, 25 सितंबर 2014

११. मन को अंग ~ ४

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग*
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*कांम जब जागै तब गनत न कोऊ साख,*
*जांनै सब जोई करि देखत न माँ धी है ।* 
*क्रोध जब जागै तब नैकु न संभारि सकै,* 
*ऐसी बिधि मूल की अविद्या जिन साधी है ॥* 
*लोभ जब जागै तब त्रिपत न क्यौं हूं होइ,* 
*सुन्दर कहत इनि ऐसे ही मैं खाधी है ।* 
*मोह मतवारौ निश दिन हि फिरत रहै,* 
*मन सौ न कोऊ हम देख्यौ अपराधी है ॥४॥* 
*मन संसार में महत्तम अपराधी* : इस(मन) में जब किसी स्त्री के प्रति काम जाग्रत् होता है तब यह उस नारी के साथ उसके क्या पारिवारिक सम्बन्ध है ? - इस बात का कोई विचार नहीं करता । उस समय इसके लिये सभी नारियाँ भोग्य की वस्तु है, तब यह उस(नारी) को मातृभाव या पुत्रिभाव(माँ + धी) से नहीं देखता । 
जब इसमें किसी के प्रति क्रोध जाग्रत् होता है तब भी वह यह अपने को नियंत्रित नहीं कर पाता । उस समय ऐसा लगता है की मानों हजारों वर्ष पुराने अज्ञान ने इसको आच्छादित कर रखा है । 
जब कभी लोभ इसको आवृत कर लेता है उस समय इसको सब कुछ मिल जाने पर तृप्ति नहीं होती । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - उस समय यह उसी में सर्वधिक स्वाद मानता है । 
जब यह मोह दुर्गुण में मतवाला होता है तब यह उसी में उन्मत होकर संसार में दौड़ लगता है । हमने(संसार में) अपने मन जैसा अपराधी अन्य कोई नहीं देखा ॥४॥
(क्रमशः) 

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