॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
.
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*११. मन को अंग*
.
*कांम जब जागै तब गनत न कोऊ साख,*
*जांनै सब जोई करि देखत न माँ धी है ।*
*क्रोध जब जागै तब नैकु न संभारि सकै,*
*ऐसी बिधि मूल की अविद्या जिन साधी है ॥*
*लोभ जब जागै तब त्रिपत न क्यौं हूं होइ,*
*सुन्दर कहत इनि ऐसे ही मैं खाधी है ।*
*मोह मतवारौ निश दिन हि फिरत रहै,*
*मन सौ न कोऊ हम देख्यौ अपराधी है ॥४॥*
*मन संसार में महत्तम अपराधी* : इस(मन) में जब किसी स्त्री के प्रति काम जाग्रत् होता है तब यह उस नारी के साथ उसके क्या पारिवारिक सम्बन्ध है ? - इस बात का कोई विचार नहीं करता । उस समय इसके लिये सभी नारियाँ भोग्य की वस्तु है, तब यह उस(नारी) को मातृभाव या पुत्रिभाव(माँ + धी) से नहीं देखता ।
जब इसमें किसी के प्रति क्रोध जाग्रत् होता है तब भी वह यह अपने को नियंत्रित नहीं कर पाता । उस समय ऐसा लगता है की मानों हजारों वर्ष पुराने अज्ञान ने इसको आच्छादित कर रखा है ।
जब कभी लोभ इसको आवृत कर लेता है उस समय इसको सब कुछ मिल जाने पर तृप्ति नहीं होती । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - उस समय यह उसी में सर्वधिक स्वाद मानता है ।
जब यह मोह दुर्गुण में मतवाला होता है तब यह उसी में उन्मत होकर संसार में दौड़ लगता है । हमने(संसार में) अपने मन जैसा अपराधी अन्य कोई नहीं देखा ॥४॥
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें