बुधवार, 3 सितंबर 2014

७. विश्वास का अंग ~ ६

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*७. विश्वास का अंग* 
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*जा दिन तैं गर्भवास तज्यौ नर,* 
*आइ आहार लियौ तब ही कौ ।* 
*खात हि खात भये इतने दिन,* 
*जांनत नाहिं न भूंछ कहीं कौ ॥* 
*दौरत धावत पेट दिखावत,* 
*तूं शठ कीट सदा अंन ही कौ ।* 
*सुन्दर क्यौं बिसवास न राखत,* 
*सो प्रभु विश्व भरै कब ही कौ ॥६॥* 
जब तूँ गर्भवास से बाहर आया, तो वही उस समय के अनुकूल आहार लेकर बाहर खड़ा था । 
तभी से तूँ विविध खाद्य पदार्थ खाता चला आ रहा है, यह सब करते हुए तुझको को इतना समय हो गया, मूर्ख ! अभी यह सचाई तेरी समझ में नहीं आ रही है । 
अरे शठ ! तूँ अब भी अन्न की प्राप्ति के लिए कीड़े के समान इधर उधर दौड़ता विलखता फिर रहा है ! 
*श्री सुन्दरदास जी* महाराज कहते हैं - अरे भाई ! तूँ विश्वास क्यों नहीं रखता कि वह सर्वरक्षक प्रभु ही कितने समय से समस्त संसार का भरण पोषण कर रहा है ॥६॥
(क्रमशः)

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