॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
.
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*७. विश्वास का अंग*
.
*जा दिन तैं गर्भवास तज्यौ नर,*
*आइ आहार लियौ तब ही कौ ।*
*खात हि खात भये इतने दिन,*
*जांनत नाहिं न भूंछ कहीं कौ ॥*
*दौरत धावत पेट दिखावत,*
*तूं शठ कीट सदा अंन ही कौ ।*
*सुन्दर क्यौं बिसवास न राखत,*
*सो प्रभु विश्व भरै कब ही कौ ॥६॥*
जब तूँ गर्भवास से बाहर आया, तो वही उस समय के अनुकूल आहार लेकर बाहर खड़ा था ।
तभी से तूँ विविध खाद्य पदार्थ खाता चला आ रहा है, यह सब करते हुए तुझको को इतना समय हो गया, मूर्ख ! अभी यह सचाई तेरी समझ में नहीं आ रही है ।
अरे शठ ! तूँ अब भी अन्न की प्राप्ति के लिए कीड़े के समान इधर उधर दौड़ता विलखता फिर रहा है !
*श्री सुन्दरदास जी* महाराज कहते हैं - अरे भाई ! तूँ विश्वास क्यों नहीं रखता कि वह सर्वरक्षक प्रभु ही कितने समय से समस्त संसार का भरण पोषण कर रहा है ॥६॥
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें