🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
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*#श्रीदादूदयालवाणी०आत्मदर्शन* द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग गौड़ी १(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
.
४. विरह । एकताल
https://youtu.be/AiZEIwX5SHo
कौण विधि पाइये रे, मीत हमारा सोइ ॥टेक॥
पास पीव, परदेश है रे, जब लग प्रकटै नांहि ।
बिन देखे दुख पाइये, यहु सालै मन मांहि ॥१॥
जब लग नैंन न देखिये, प्रकट मिलै न आइ ।
एक सेज संगहि रहै, यहु दुख सह्या न जाइ ॥२॥
तब लग नेड़ै दूर है रे, जब लग मिले न मोहि ।
नैन निकट नहीं देखिये, संग रहे क्या होइ ॥३॥
कहा करूँ कैसे मिले रे, तलफै मेरा जीव ।
दादू आतुर विरहनी, कारण अपने पीव ॥४॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव अपने को उपलक्षण करके कहते हैं कि हे भाई! हमारे मित्र परमेश्वर को हम किस प्रकार प्राप्त करें ? उनकी अप्राप्ति रूप विरह का दर्द हमको सता रहा है, क्योंकि वे पास में होते हुए भी परदेशी की तरह हो रहे हैं । जब तक वे हृदय में दर्शन नहीं देते, उनके दर्शन किए बिना, विरह का दुःख मन में बना ही रहेगा । जब लग ज्ञान विचार रूपी सेज पर संग रहने से भी क्या ? क्योंकि यह वियोग रूपी दुःख अब नहीं सहा जाता । तब तक नजदीक बसते हुये भी वे दूर ही हैं, जब तक हमको दर्शन नहीं होवे, अर्थात् अपने ज्ञान विचार रूपी नेत्रों से जब तक हम दर्शन नहीं कर लें, तब तक साथ रहने से भी क्या होता है ? अब हम विरहीजन क्या करें ? हमको हमारा स्वामी कैसे मिले ? अब तो यह हमारा जीव तड़प रहा है । इस प्रकार हम विरहीजन, पीव कहिये मुख प्रीति का विषय, परमेश्वर के लिये हृदय में तलफ रहे हैं ।
क्या करूँ बैकुण्ठ को, कल्प वृक्ष की छाँह ।
‘हेतम’ ढाक सुहावणे, जहाँ सज्जन गल बाँह ॥४॥
सज्जन रूप समुद्र में, हौं झाझ भई कंत ।
तन मन जोबन बूडिगो, प्रेम ध्वजा फहरंत ॥४॥
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
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*#श्रीदादूदयालवाणी०आत्मदर्शन* द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग गौड़ी १(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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४. विरह । एकताल
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कौण विधि पाइये रे, मीत हमारा सोइ ॥टेक॥
पास पीव, परदेश है रे, जब लग प्रकटै नांहि ।
बिन देखे दुख पाइये, यहु सालै मन मांहि ॥१॥
जब लग नैंन न देखिये, प्रकट मिलै न आइ ।
एक सेज संगहि रहै, यहु दुख सह्या न जाइ ॥२॥
तब लग नेड़ै दूर है रे, जब लग मिले न मोहि ।
नैन निकट नहीं देखिये, संग रहे क्या होइ ॥३॥
कहा करूँ कैसे मिले रे, तलफै मेरा जीव ।
दादू आतुर विरहनी, कारण अपने पीव ॥४॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव अपने को उपलक्षण करके कहते हैं कि हे भाई! हमारे मित्र परमेश्वर को हम किस प्रकार प्राप्त करें ? उनकी अप्राप्ति रूप विरह का दर्द हमको सता रहा है, क्योंकि वे पास में होते हुए भी परदेशी की तरह हो रहे हैं । जब तक वे हृदय में दर्शन नहीं देते, उनके दर्शन किए बिना, विरह का दुःख मन में बना ही रहेगा । जब लग ज्ञान विचार रूपी सेज पर संग रहने से भी क्या ? क्योंकि यह वियोग रूपी दुःख अब नहीं सहा जाता । तब तक नजदीक बसते हुये भी वे दूर ही हैं, जब तक हमको दर्शन नहीं होवे, अर्थात् अपने ज्ञान विचार रूपी नेत्रों से जब तक हम दर्शन नहीं कर लें, तब तक साथ रहने से भी क्या होता है ? अब हम विरहीजन क्या करें ? हमको हमारा स्वामी कैसे मिले ? अब तो यह हमारा जीव तड़प रहा है । इस प्रकार हम विरहीजन, पीव कहिये मुख प्रीति का विषय, परमेश्वर के लिये हृदय में तलफ रहे हैं ।
क्या करूँ बैकुण्ठ को, कल्प वृक्ष की छाँह ।
‘हेतम’ ढाक सुहावणे, जहाँ सज्जन गल बाँह ॥४॥
सज्जन रूप समुद्र में, हौं झाझ भई कंत ।
तन मन जोबन बूडिगो, प्रेम ध्वजा फहरंत ॥४॥
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