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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२६ (ख) पंजाबी त्रिताल ~
जियरा काहे रे मूढ डोले ?
वनवासी लाला पुकारे, तूँही तूँही कर बोले॥
साथ सवारी ले न गयो रे, चालण लागो बोले ।
तब जाइ जियरा जाणैगो रे, बाँधे ही कोई खोले ॥ १ ॥
तिल तिल मांहैं चेत चली रे, पंथ हमारा तोले ।
गहिला दादू कछू न जाणै, राख ले मेरे मोले ॥ २ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि उपदेश करते हैं कि हे मोह में अंधे हुए जीव ! परमेश्वर का स्मरण त्यागकर विषयों की ओर क्यों भटकता है ? देख, जंगल में रहने वाले पक्षी भी ‘तूँ ही तूँ ही’ करके परमेश्वर का स्मरण करते हैं । संसार से जाते समय ये हाथी, घोड़े, रथ आदि कोई भी सवारी लेकर नहीं गया है । जाने वाले जाते समय बोलते हैं “अब हम चलने वाले हैं,” कि यह सब सम्पत्ति हम यहाँ ही छोड़कर जा रहे हैं, हमारे साथ यह कुछ भी नहीं जा सकती है । हे जीव ! ऐसे ही तूँ भी जब जायेगा, तब जानेगा कि मैंने जो कुछ पसारा किया, यह सब मेरे बन्धन का ही कारण बना है । इन बन्धनों से अब मुझे कौन खोले ? इसलिये हे जीव ! अब क्षण - क्षण में चेत करके चल और ‘हमारा’ कहिये, परमेश्वर के भक्तों के मार्ग को अपना । हे परमेश्वर ! आप कृपा करो । यह ‘गहला’ - मोह ममता में पागल हुआ जीव कुछ भी आपके मार्ग को नहीं जानता है । आप ही कृपा करके, अब इस अज्ञानी जीव की रक्षा करो ।
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