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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“त्रयोविंशति तरंग” ३/६)*
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*श्री गरीबदास जी का प्रश्न -*
गरीबदास प्रश्नहिं करे, सुनिये दीनदयाल ।
अनुभव मुख वाणी रची, भाषा विमल रसाल ॥३॥
कौनहु सम्वत कौन पुर, रच्यो ग्रन्थ सुखकंद ।
कृपा सिन्धु सुनि बोलिये, शुद्ध सच्चिदानन्द ॥४॥
शिष्य गरीबदास जी ने प्रश्न किया - हे दीनदयालु ! आपने भक्त संत सेवकों को भक्ति ज्ञान वैराग्य का उपदेश देने के लिये जो अनुभववाणी अपने श्रीमुख से रची है, उसका विस्तार से आख्यान कीजिये । उसकी भाषा अत्यन्त सरल एवं रसीली है । ऐसे सुन्दर सुखकंद ग्रन्थ की रचना कब और कहाँ विराज कर की है ? तब कृपा सिन्धु, दीनदयाल महाप्रभु सच्चिदानन्दस्वरूप श्री दादूजी ने फरमाया ॥३-४॥
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*श्री दादूवाणी रचना आज्ञा -*
अनुभव पद इच्छाकरी, रच्यो सुसंस्कृत भाष ।
वाणी प्रगटी जगत में, भयो शब्द आकाश ॥५॥
संस्कृत भाषा मत रचो, प्राकृत नाहीं भास ।
शुद्ध सरल भाषा रचो, अनुभव सरस बनाय ॥६॥
जब मेरे मन में अनुभव सिद्ध ज्ञान को प्रकट करने की इच्छा हुई, तब संस्कृत भाषा में वाणी रचना प्रारम्भ की गई । उसी समय आकाशवाणी से श्री हरि ने आज्ञा दी कि - संस्कृत भाषा में वाणी रचना मत करो, क्योंकि संस्कृत भाषा कठिन है । जन - साधारण इस भाषा में रचित ग्रन्थ से ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ रहेंगे । संसारी जन प्राय: मन्दबुद्धि होते हैं, अत: प्राकृत भाषा में भी वाणी रचना मत करो । अल्प मति वाले ऐसे ग्रन्थ को पढ़ भी नहीं सकेंगे, तब भक्ति ज्ञान की प्रेरणा कैसे ले सकेंगे । अत: सरल लौकिक भाषा में ही वाणी रचना करो । जिसकी सरलता और सरसता से अनुभव सिद्ध ज्ञान का प्रकाश जन - जन तक पहुँच सके ॥५-६॥
(क्रमशः)

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