सोमवार, 6 अक्टूबर 2014

= १२९ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
दादू कर सांई की चाकरी, ये हरि नाम न छोड़ । 
जाना है उस देश को, प्रीति पिया सौं जोड़ ॥ 
आपा पर सब दूर कर, राम नाम रस लाग । 
दादू अवसर जात है, जाग सकै तो जाग ॥ 
बार बार यह तन नहीं, नर नारायण देह । 
दादू बहुरि न पाइये, जन्म अमोलिक येह ॥ 
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साभार : Ramjibhai Jotaniya
मनुष्य की एकमात्र विशेषता ~ 
(मनुष्य जीवन ही एक ऐसा अवसर है जब स्वस्वरुप परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है । ऐसे अनमोल अवसर को हम भगवत प्राप्ति बिना व्यर्थ ही गँवा देते है, पशु के सामान जीते हैं ।) 
मनुष्य जहाँ सृष्टि का सर्वोच्च प्राणी है, वहाँ इस दृष्टि से सबसे पिछड़ा हुआ भी है कि वह बिना दूसरों की सहायता के अपना कुछ भी विकास करने और कुछ भी सुख सुविधाएँ उपार्जित कर सकने में असमर्थ है । 
उन्नति और सुविधा के जितने भी साधन हमें प्राप्त होते हैं उसमें अगणित लोगों का योगदान जुड़ा रहता है। नाना प्रकार के सुन्दर भोजन जो हम नित्य खाते हैं क्या यह सब हमारे स्वयं के द्वारा उपार्जित किये हुए हैं ? माना कि उन्हें पैसे देकर खरीदा गया है पर यदि उत्पादक लोग उन्हें अपना श्रम और बुद्धिबल लगाकर उत्पन्न न करें तो पैसे के बल पर क्या उन्हें प्राप्त किया जा सकेगा ? आज टेलीफोन की, रेल की हवाई जहाज की सुविधाएँ प्राप्त हैं, यह सब आज से पाँच सौ वर्ष पूर्व कोई हजारों रुपया पास होने पर भी प्राप्त नहीं कर सकता था। 
पैसा नहीं, लोगों का श्रम सहयोग ही प्रधान है। पैसे के बल पर माता का वात्सल्य, पिता का स्नेह, पत्नी का समर्पण पुत्र की श्रद्धा, मित्र का सौहार्द्र भला कौन प्राप्त कर सका है ? स्वास्थ्य, शिक्षा, सद्गुण, सम्मान आदि भी पैसे के बल पर कहाँ प्राप्त होते हैं? पैसे में कुछ शक्ति है तो अवश्य, उससे सुविधा भी मिलती हैं पर वह शक्ति है सीमित ही। मनुष्य केवल उसी के बल पर अपने जीवन को सुसम्पन्न और शान्ति मय नहीं बना सकता । 
सहयोग पर निर्भर प्राणी मनुष्य एक प्रकार भिखारी है। उसके पास जो कुछ हैं उसमें से अधिकांश दूसरों का प्रदत्त है। कपड़े जो हम पहने हैं − बैल, किसान, लुहार, यंत्र निर्माता, धुनियाँ, कातने वाले, बुनकर बजाज, दर्जी, आदि अनेकों के सहयोग से ही तैयार हुए हैं। वह शिक्षा जिसके बल पर हम आज सभ्य कहे जाते है और सुविधापूर्वक आजीविका कमाते हैं क्या हमने अपने आप ही पैदा कर ली है ? 
नहीं, इसमें भाषा विज्ञान के आदि के आविष्कारों से लेकर, कागज निर्माता, प्रेस वाले पुस्तक - लेखक स्याही और कलम उत्पादक, शिक्षक, विद्यालय निर्माता आदि अगणित लोगों का सहयोग सम्मिलित हैं। यदि यह न मिला होता हो यह कैसे सम्भव होता कि आज हम शिक्षित कहला सकते ? 
एक बार एक मादा भेड़िया मनुष्य के छोटे बच्चे को उठा ले गई। उसने उसे खाने की बजाय अपना दूध पिलाकर पाल लिया। बड़ा होने पर वह बालक शिकायतों द्वारा पकड़ा गया तो उसका सोचना, चलना, स्वभाव सभी कुछ भेड़ियों जैसा था। मनुष्य कच्ची मिट्टी के समान है वह वैसा ही ढल जाता है जैसे साँचे में ढाला जाता है। हम आज अपनी शिक्षा और संस्कृति पर गर्व कर सकते हैं पर वह हमारी निज की उपार्जित नहीं, अनेक सज्जनों के द्वारा उदारतापूर्वक दी गई भिक्षा है।

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