सोमवार, 6 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ १५

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग*
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*व्है सब कौ सर मौर ततक्षिन,*
*जौ अभि अन्तरि ज्ञान बिचारे ।*
*जौ कछु और बिषै सुख बंछत,*
*तौ यह देह अमोलिक हारै ॥* 
*छाड़ि कुबुद्धि भजै भगवंत हि,*
*आपु तिरै पुनि और हि तारै ।* 
*सुन्दर तोहि कह्यौ कितनी बर,*
*तूं मन क्यौं नहिं आपु संभारै ॥१५॥* 
रे मन ! जब तूँ आध्यात्मिक तत्वज्ञान पर तत्काल चिन्तन करना आरम्भ कर दे तभी तूँ जगत् में सर्वश्रेष्ठ कहला सकता है । 
तथा उस समय तूँ किसी लौकिक सुख प्राप्ति की इच्छा भी उसके प्रभाव से पूर्ण कर सकता है, परन्तु इससे तेरी यह अमूल्य देह प्राप्ति व्यर्थ ही कहलायगी । 
तूँ अपनी इस सांसारिक तृष्णायुक्त कुमति को छोड़ दे तथा एकमात्र हरिभजन में अपने को लगा दे । इससे दो लाभ होंगे - प्रथम तूँ स्वयं इस भवसागर से पार हो जायेगा, तथा दूसरे तूँ जिसको इस तत्वज्ञान का उपदेश करेगा, वह भी भवसागर से पार हो जायेगा । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - मैंने तुझ को कितनी बार समझाया है, तूँ अपने आप को क्योँ नहिं सम्हालता है ॥१५॥
(क्रमशः)

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