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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*लोहरवाड़ा प्रसंग*
काहे को दुख दीजिये, घट घट आत्मराम ।
दादू सब संतोंषिये, यह साधु का काम ॥११॥
काहे को दुख दीजिये, साँई है सब मांहि ।
दादू एकै आत्मा, दूजा कोई नांहि ॥१२॥
साहिब जी की आत्मा, दीजे सुख संतोंष ।
दादू दूजा को नहीं, चौदह तीनों लोक ॥१३॥
दादू जब प्राण पिछाणै आपको, आत्म सब भाई ।
सिरजनहारा सबनि का, तासौं ल्यौ लाई ॥१४॥
आत्मराम विचार कर, घट घट देव दयाल ।
दादू सब संतोंषिये, सब जीवों प्रतिपाल ॥१५॥
दादू पूरण ब्रह्म विचारले, द्वैत भाव कर दूर ।
सब घट साहिब देखिये, राम रह्या भरपूर ॥१६॥
(दया निर्वेरता अंग २९)
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लोहरवाड़े ग्राम के महन्त ने दादूजी को मारने का षड्यन्त्र रचा था । एक कुटिया में खड्डा खोद कर उसमें तलवार आदि शस्त्र इस प्रकार खड़े कर दिये थे जिन पर पड़ते ही शरीर के टुकड़े - २ हो जायें । उस पर एक पलंग कच्चे सूत के धागे लपेट कर बिछा दिया था और उस पर श्वेत मलमल की चादर बिछा दी थी । उस पर दादूजी का आसन लगाना था ।
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किन्तु उस पर रज दिखाई दी तब दादूजी ने टीलाजी को कहा - पहले इस पलंग पर दंडा मार कर उसकी रज उड़ा दो । टीलाजी ने ज्यों ही दंडा मारा तो कच्चे धागे टूट कर चादर नीचे शस्त्रों पर पड़ी । यह दृश्य देखकर दादूजी वहां से लौट कर जहाँ पहले बैठे थे वहां आकर बैठ गये । किन्तु दादूजी के दर्शन करने अन्य ग्रामों के जो लोग आये थे वे उस महन्त को खोज कर मारने लगे तब दादूजी ने उक्त साखियां सुनाकर उसे छुड़ाया था ।
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फिर सब ग्राम वालों की रुख भी उक्त महन्त के समान देख कर दादूजी के मुख से ये दो साखी निकली थी -
दादू खाडा बूजी भक्त है लोहरवाड़े मांहिं ।
प्रकट हि पैंडाइत बसे, तहँ संत काहे को जांहि ॥६९॥
(माया अंग १२)
भाव हीन जो पृथवी, दया विहूना देश ।
भक्ति नहीं भगवंत की, तहँ कैसा परवेश ॥४८॥
(मध्य अंग १६)
उक्त दोनों साखी बोलकर दादूजी शिष्यों सहित वहां से चल दिये थे । दादूजी पर श्रद्धा रखने वाले अब तक भी लोहरवाड़े ग्राम में नहीं जाते हैं ।
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