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*#श्रीदादूदयालवाणी०आत्मदर्शन* द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग गौड़ी १(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१७. परिचय विनती । वीर विक्रम ताल ~
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जो रे भाई ! राम दया नहीं करते ।
नवका नाम खेवट हरि आपै,
यों बिन क्यों निस्तरते ॥टेक॥
करणी कठिन होत नहिं मोपै,
क्यों कर ये दिन भरते ।
लालच लाग परत पावक में,
आपहि आपै जरते ॥१॥
स्वाद हि संग विषय नहिं छूटै,
मन निश्चल नहिं धरते ।
खाय हलाहल सुख के तांई,
आपै ही पच मरते ॥२॥
मैं कामी कपटी क्रोध काया में,
कूप परत नहिं डरते ।
करवत काम शीश धर अपने,
आपहि आप विहरते ॥३॥
हरि अपना अंग आप नहिं छाड़ै,
अपनी आप विचरते ।
पिता क्यों पूत को मारै,
दादू यूं जन तिरते ॥४॥
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टीका ~ हे जिज्ञासु ! यदि राम अपने भक्तों पर दया नहीं करें, तो भक्त संसार से कैसे तरते ? वह हरि स्वयं नामरूपी नौका में बैठा कर आप ही केवट बनते हैं । ऐसे प्रभु दया नहीं करते तो हम कैसे तरते ?
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संसार से पार होने की करणी तो अर्थात् योग हठयोग आदि तो करना हमारे से बहुत कठिन है । ये उम्र के दिन विरह युक्त कैसे हम बिताते ? विषयों के लालच में लग करके विषय रूप पावक में अपने आप ही पड़कर जलते रहते ।
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इन स्वादों के वश पड़कर विषयों से पीछा नहीं छूटता और मन को निश्चल स्वरूप में नहीं रख सकते थे । विषयरूपी सुख के लिये हलाहल स्त्री आदि पदार्थों को भोगते, अज्ञान में अपने आप ही पच - पच कर इनसे मरते रहते ।
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हम तो काम - वासना, कपट - युक्त कर्म, क्रोध इनके वशीभूत होकर इस शरीर में, संसार रूप अन्ध कुएँ में पड़ने से कभी नहीं डरते थे । अपने मस्तक पर काम रूप करवत धरके अपने आपको आप ही चीरते थे ।
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परन्तु वह पतितपावन भक्त - वत्सल हरि, हमको अपना अंश जानकर आप स्वयं विचारते हैं कि यह तो कपूत है, तो भी मेरा ही है, क्योंकि पिता पुत्र अपराधी होने पर भी पुत्र को कभी नहीं मारता । वह जानता है कि यह तो मेरा ही है । इसी प्रकार, हे नाथ ! हम जन भी आपकी दया के आसरे से ही तरेंगे ।
पारब्रह्म पूरी करी, हित कर पकड़या हाथ ।
रज्जब राख्या रहम कर, मीच मिटाई नाथ ॥१७॥
(क्रमशः)
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