शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2014

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*#श्रीदादूदयालवाणी०आत्मदर्शन* द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग गौड़ी १(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
१६. करुणा । वीर विक्रम ताल
क्यों कर मिलै मोकौं राम गुसाँई, 
यहु बिषिया मेरे वश नांही ॥टेक॥
यहु मन मेरा दहदिशि धावै, 
नियरे राम न देखन पावे ॥१॥
जिह्वा स्वाद सबै रस लागे, 
इन्द्री भोग विषय को जागे ॥२॥
श्रवणहुँ साच कदे नहिं भावे, 
नैन रूप तहँ देख लुभावे ॥३॥
काम क्रोध कदे नहीं छीजे, 
लालच लाग विषय रस पीजे ॥४॥
दादू देख मिले क्यों साँई, 
विषय विकार बसे मन मांही ॥५॥
टीका ~ जिज्ञासु कहता है कि हे सतगुरु ! मेरे स्वामी राम मुझे कैसे मिलेंगे ? ये सांसारिक माया पदार्थ बड़े भयंकर हैं । इनसे छुटकारा पाना मेरे वश की बात नहीं है । 
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मेरे काबू से बाहर हैं, क्योंकि यह मेरा मन दसों दिशाओं में वासनाओं के द्वारा दौड़ रहा है । इसीलिये अत्यन्त समीप अन्तःकरण में होते हुए भी राम का यह दर्शन नहीं कर पाता, 
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क्योंकि इन्द्रियाँ भी अपने - अपने विषयों के रस को लेने में रत्त हो रही हैं ।
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और हे गुरुदेव ! काम, क्रोध, लोभ, मोह, ये तो कभी भी हृदय से अलग नहीं होते हैं । नाना प्रकार से विषयों के लालच में फँसकर विषय - वासना रूपी रस का ही उपभोग करता रहता हूँ । 
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हम अपने कर्मों को देखते हैं तो इनसे परमेश्‍वर हमें कैसे मिलेगा ? हमारे मन में तो विषय - वासना रूप विकार हर समय भरे रहते हैं ।
तुम योग सेवक नहीं, मैं मंदभागी करतार ।
रज्जब गुनही बाप जी, बहुत किये व्यभिचार ॥१६॥
(क्रमशः)

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