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*#श्रीदादूदयालवाणी०आत्मदर्शन* द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग गौड़ी १(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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२९. उपदेश चेतावनी । त्रिताल ~
मैं मैं करत सबै जग जावै,
अजहूँ अंध न चेते रे ।
यह दुनिया सब देख दिवानी,
भूल गये हैं केते रे ॥टेक॥
मैं मेरे में भूल रहे रे,
साजन सोइ विसारा ।
आया हीरा हाथ अमोलक,
जन्म जुवा ज्यों हारा ॥१॥
लालच लोभैं लाग रहे रे,
जानत मेरी मेरा ।
आपहि आप विचारत नाहीं,
तूँ का को को तेरा ॥२॥
आवत हैं सब जाता दीसैं,
इनमें तेरा नाहीं ।
इन सौं लाग जन्म जनि खोवै,
शोधि देख सचु मांहीं ॥३॥
निहचल सौं मन मानैं मेरा,
साँई सौं बन आई ।
दादू एक तुम्हारा साजन,
जिन यहु भुरकी लाई ॥४॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि कहते हैं कि हे जिज्ञासुओं ! सांसारिक मानव इसमें आसक्त हो रहे हैं कि मैं धनी हूँ, मैं बली हूँ, इस प्रकार अहंकार करके सभी संसार के प्राणी काल के मुँह में जा रहे हैं । यह देख करके भी मद में अन्धे हुए प्राणी सचेत नहीं होते । यह सब संसार विषय - वासनाओं में पागल हो रहा है । इनको देखकर, कितने ही विचारवान् पुरुष भी संसार में अपने हित को भूले जा रहे हैं ।
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मैं और मेरा इस अभिमान में फँसकर अपना सच्चा स्वामी परमात्मा था, उसके उपकार को विसार कर उसको भी भूल गये हैं । यह मनुष्य जन्म रूप अमोलक हीरा बुद्धिरूप हाथ में आया था, परन्तु इसको भी जुआरी की भाँति, विषय - वासनाओं में खो रहे हैं ।
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और नाना प्रकार के लोभ और विषयों के लालच में लग रहे हैं और फिर कहते हैं कि यह मेरी स्त्री है, ये मेरे पुत्र हैं, यह मेरा घर - द्वार है, यह मेरा धन - धान्य है,किन्तु अपने हृदय में वे स्वयं विचार नहीं करते कि तूँ किसका है ? और इनमें कौन तेरा है ?
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ये सब तो आते - जाते दिखाई पड़ते हैं । इनमें तो विचार कर देखे तो, तेरा कुछ भी नहीं है । और यदि तेरे होवें, तो तेरे पास से क्यों चले जाते है ? हे प्राणी ! इनमें आसक्त होकर अपने मनुष्य - जन्म को व्यर्थ में क्यों खो रहा है ? अब तूँ विचारपूर्वक देख, परम सुख तो अन्तःकरण में ही है ।
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हमारा मन तो परमेश्वर के एक नाम - स्मरण में ही सुख मानता है, उसी से हमारी तो सम्पूर्ण वार्ता ठीक बन रही है । तुम सब भी याद रखो, जिस समर्थ परमेश्वर ने यह माया रूप भुरकी डाली है, वही तुम्हारा सच्चा रक्षा करने वाला मित्र है और सब तो संसार में अपने - अपने स्वार्थ के ही साथी हैं । निःस्वार्थ तो एक परमेश्वर और सतगुरु ही हैं ।
छन्द ~
मात पिता सुत भाई बान्धव,
युवती के कहे काम करै है ।
चोरी करै बटपारि करै,
किरषी बन जी कर पेट भरै है ॥
शीत सहै, सिर घाम सहै,
कहि सुन्दर सो रन मांहि मरै है ।
बांधि रह्यो ममता सब से नर,
याहि ते बंधहि बंध फिरै है ॥२९॥
(क्रमशः)

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