शनिवार, 25 अक्टूबर 2014

आमेर प्रसंग~ १

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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आमेर प्रसंग~ १
२०६. परिचय उपदेश । त्रिताल
सहज सहेलड़ी हे, तूँ निर्मल नैन निहारि ।
रूप अरूप निर्गुण आगुण में, त्रिभुवन देव मुरारि ॥टेक॥
बारम्बार निरख जग जीवन, इहि घर हरि अविनाशी ।
सुन्दरी जाइ सेज सुख विलसे, पूरण परम निवासी ॥१॥
सहजैं संग परस जगजीवन, आसण अमर अकेला ।
सुन्दरी जाइ सेज सुख सोवै, जीव ब्रह्म का मेला ॥२॥
मिलि आनन्द प्रीति करि पावन, अगम निगम जहँ राजा ।
जाइ तहाँ परस पावन को, सुन्दरी सारे काजा ॥३॥
मंगलाचार चहुँ दिशि रोपै, जब सुन्दरी पिव पावै ।
परम ज्योति पूरे सौं मिल कर, दादू रंग लगावै ॥४॥
आमेर के राजघराने में कथा बाँचने वाले एक पंडित की पुत्री भगवान् की भक्त थी । उसने सुना कि दादूजी की शिष्या सभाकुमारी और रूप कुमारी आजकल गार्गी और सुलभा के समान महात्मा हैं । वे परम वैराग्य और ज्ञानयुक्त हैं । 
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उन दोनों का आजीवन ब्रह्मचर्य से रहने का विचार है । इत्यादिक बाइयों की महिमा सुनकर पंडित पुत्री उक्त दोनों बाइयों के दर्शन करने गई । उनके दर्शन, विचार और निष्ठा से पंडित पुत्री अति प्रसन्न हुई और उसने आजीवन ब्रह्मचर्य से रहकर भगवद् भजन करने का निश्‍चय कर लिया । फिर दादूजी के दर्शन करने गई । 
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दादूजी ने अपनी योग शक्ति से उसके हृदय को प्रभुपरायणाता देखकर सबके सामने ही उक्त बाई को लक्ष्य करके उक्त २०६ का पद कहा था । उक्त पद सुनकर पंडित पुत्री परमानन्द में निमग्न हो गई और दादूजी को मन में गुरु भी मान लिया । उसके पिता पंडित ने उसके विवाह की बात चलाई तब वह नट गई । 
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पंडित ने बहुत समझाया किन्तु उसने नहीं माना । अन्त में कहा - तुम कुंवारी नहीं रह सकती । यह शास्त्र से विरुद्ध है । पुत्री ने कहा - दादूजी की शिष्या भी तो बिना विवाह हैं । पंडित ने कहा - हम उनका भी विवाह करा कर ही रहेंगे । पुत्री ने कहा - उनका विवाह करा दो फिर मैं करा लूंगी । इसी कारण से उस पंडित ने आमेर के पंडितों की अपने पक्ष में लेकर दादूजी से प्रतिपक्ष खड़ा किया था और सब मिलकर आमेर नरेश मानसिंह को भी बहकाया था । .
राजा दादूजी के पास गया किन्तु पंडित की बात मन में ही रक्खी कही नहीं तब दादूजी ने राजा के मन की बात जानकर उसे कहा -
विषय हलाहल खायकर, सब जग मरता जाय ।
दादू मोहरा नाम ले, हृदय राखि ल्यौ लाय ॥६५॥
जेती विषया विलसिये, तेती हत्या होय ।
प्रत्यक्ष मानुष मारिये, सकल शिरोमणि सोय ॥६६॥
विषया का रस मद भया, नर नारी का मांस ।
माया माते मद पिया, किया जन्म का नाश ॥६७॥
(माया अंग १२)
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राजा मानसिंह के मन की बात का उत्तर दादूजी ने उसके बिना कहे ही सुना दिया । इससे राजा डर गया । राजा के प्रश्‍न का उत्तर सुनने जो लोग आये थें उन लोगों को लक्ष्य करके दादूजी ने नीचे लिखी साखियाँ भी सभा को सुनाई -
दादू पुरुष हमारा एक है, हम नारी बहु अंग ।
जे जे जैसी ताहि सौं, खेलैं तिस ही रंग ॥५७॥
दादू दूजे अन्तर होत है । जनि आने मन मांहिं ।
तहँ जे मन को राखिये, जहँ कु़छ दूजा नांहिं ॥६३॥
(निष्कामी पति. अंग ८)
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फिर राजा ने अपने मन की बात मन में रक्खी । सभा ने दादूजी की यथार्थ वचन कहने पर बारंबार धन्यवाद कहा । सब प्रसन्न होकर चले गये ।

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