मंगलवार, 28 अक्टूबर 2014

#daduji 

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
http://youtu.be/D8mZaqFEcQo
३१. मन प्रबोध ? पंजाबी त्रिताल ~
मन रे राम बिना तन छीजे ?
जब यहु जाइ मिलै माटी में, तब कहु कैसे कीजै ॥ टेक ॥
पारस परस कंचन कर लीजे, सहज सुरति सुखदाई ।
माया बेलि विषय फल लागे, ता पर भूल न भाई ॥ १ ॥
जब लग प्राण पिंड है नीका, तब लग ताहि जनि भूलै ।
यहु संसार सेमल के सुख ज्यों, ता पर तूँ जनि फूलै ॥ २ ॥
अवसर यह जान जगजीवन, समझ देख सचु पावै ।
अंग अनेक आन मत भूलै, दादू जनि डहकावै ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरु मन को उपदेश करते हैं कि हे मन ! राम की भक्ति के बिना, यह तेरा तन क्षण - क्षण में नष्ट होता जा रहा है । जब यह एक रोज मिट्टी में मिल जायेगा, तब फिर तूँ, क्या दूसरे शरीरों में राम का स्मरण करेगा ? इस मनुष्य जन्में पारस रूप गुरु का ज्ञान, स्पर्श करके अपने स्वरूप को बदल ले ? जैसे लोहा पारस का संग करके कंचन हो जाता है, इसी प्रकार तूँ ज्ञान रूप पारस द्वारा ब्रह्मरूप हो जा । ‘सहज’ कहिए, निर्द्वन्द्व होकर सहजावस्था रूप समाधि में अपनी सुरति को स्थिर कर ले । हे मन ! स्त्री आदि माया रूप बेली के तो विषय - वासना रूप विष - फल ही लगता है । इनको देखकर सत्य स्वरूप परमात्मा को नहीं भूलना । जब तक स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर स्वस्थ हैं, तब तक गुरु उपदेश का स्मरण करना और यह संसार तो सेमल वृक्ष के समान देखने मात्र का है, इसमें सार कुछ है नहीं । सेमल वृक्ष की लाली को देखकर गीध पक्षी बहुत छले गये हैं और तोता इसके फूलों को लाल फल जानकर चोंच मारता है, तो कुछ सार नहीं मिलता सिवाय रूई के, सिर धुन कर पश्‍चात्ताप करता है । इसी प्रकार का यह मायिक संसार रूपी सेमल का वृक्ष है । अज्ञानी, बहिर्मुख, विषयासक्त मनुष्य इसको देख - देखकर राजी होते हैं, परन्तु सार कुछ नहीं पाते हैं, तब पछताते हैं । हे मन ! इसको देखकर तूँ क्या राजी होता है ? इस मनुष्य - जन्म रूपी अवसर में जगत का जीवन रूप जो परमेश्‍वर है, उसको विचार द्वारा जान ले । नित्य अनित्य का विचार करके देख, तभी तूँ सत्य को प्राप्त करेगा । माया के रचे हुए स्त्री, धन, पुत्र आदि अनेकों रूप हैं । इनको देखकर अर्थात् इनमें स्नेह करके इनके बहकाने में नहीं आना, तभी तेरे जीवन की सार्थकता है ।

“सुन्दर मानुष देह की, महिमा कहिये काहि । 
जाको वांछैं देवता, तूँ क्यूं खोवै ताहि ॥”

छन्द ~
कै बर तूँ मन ! रंक भयो सठ, मांगत भीख दशों दिश डूल्यो । 
कै बर तूँ मन, छत्र धर्यो शिर, कामिनि संग हिंडोरन झूल्यो ।
कै बर तूँ मन, छीन भयो अति, कै बर तूँ सुख पायके फूल्यो । 
सुन्दर कै बर तोहि कह्यो मन, कौन गली किहिं मारग भूल्यो ॥ ३१ ॥

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