मंगलवार, 7 अक्टूबर 2014

= १३१ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
आपा मेटै हरि भजै, तन मन तजै विकार । 
निर्वैरी सब जीव सौं, दादू यहु मत सार ॥ 
इन्द्री स्वारथ सब किया, मन मॉंगै सो दीन्ह । 
जा कारण जग सिरजिया, सो दादू कछु न कीन्ह ॥ 
किया था इस काम कौं, सेवा कारण साज । 
दादू भूला बंदगी, सर्या न एकौ काज ॥ 
दादू विषै विकार सौं, जब लग मन राता । 
तब लग चित्त न आवई, त्रिभुवनपति दाता ॥ 
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साभार : Ramjibhai Jotaniya

>>>> मन वाणी एवं काया से किसी को पीड़ा न देना ही यज्ञ है । जो बिना कारण ही किसी का दिल दुःखाता है वह आत्मघात कर रहा है । यज्ञ किए बिना, सत्कर्म के बिना चित्तशुद्धि नहीँ है, चित्तशुद्धि के बिना ज्ञान नहीँ टिकता । सत्कर्म से सभी इन्द्रियाँ शुद्ध होती है । जिसका मन कलुषित है, उसे परमात्मा का अनुभव नहीँ हो सकता ।
मानव शरीर एक गगरी है । इसमेँ नौ छिद्र है । छिद्र वाली गगरी कभी भरी नही प्रत्येक छिद्र से ज्ञान बह जाता है । ज्ञान प्राप्त होना कठिन नहीं है किन्तु उसे स्थिर रखना कठिन है । 
ज्ञान आता तो है किन्तु वह रह नहीं पाता विकार वासना वेग मे बह जाता है । वैसे तो सबकी आत्मा ज्ञानमय है, अतः अज्ञानी तो कोई नहीं है किन्तु ज्ञान को सतत् बनाए रखने के लिए इन्द्रियों के द्वारा बहने वाली बुद्धिशक्ति को रोकना है । इन्द्रियों को विषयों की न जाने देकर प्रभु के मार्ग की ओर मोड़ना है । ज्ञान टिक नहीँ पाता क्योँकि मानव विलासी हो गया है । समस्त ज्ञान पुस्तक मेँ पड़ा रह जाता है, मस्तक मे जाता ही नहीँ ।
जो पुस्तकों के पीछे दौड़े वह विद्वान है और भक्तिपूर्वक परमात्मा के पीछे दौड़े वह सन्त है । विद्वान शास्त्र के पीछे दौड़ता है, जबकि शास्त्र सन्त के पीछे दौड़ते हैं । शास्त्र पढ़कर जो बोले वह विद्वान, प्रभु को प्रसन्न करके उसी मेँ पागल होकर जो बोले वह सन्त है ।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहा है - अर्जुन, ज्ञान तो तुझी मेँ है । हृदय में सात्विक भाव जागे, मन शुद्ध हो जाय तो हृदय मेँ से ज्ञान स्वयमेव ही प्रकट हो जाता है !!! 

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