मंगलवार, 7 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ १६

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग*
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*जौ मन नारि की ओर निहारत,*
*तौ मन होत है ताहि कौ रूपा ।*
*जौ मन काहु सौं क्रोध करै जब,*
*क्रोधमई हो जाइ तद्रूपा ॥* 
*जौ मन माया ही माया रटै नित,*
*तौ मन डूबत माया के कूपा ।* 
*सुन्दर जौ मन ब्रह्म बिचारत,*
*तौ मन होत है ब्रह्मस्वरूपा ॥१६॥* 
*ब्रह्मचिन्तक मन ब्रह्ममय* : यह मन किसी नारी का रूप देखता है, तो यह उसी पर मुग्ध होता हुआ तन्मय हो जाता है । 
यह(मन) किसी पर क्रोध करता है तो उस समय उसका रूप क्रोधमय हो जाता है । 
यदि यह लोभ के वश में होकर धन की ही दिनरात तृष्णा करता है तो उसी में रम जाता है तब वह उस माया के कूप में डूबने उतराने लगता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यदि यह मन ब्रह्म का चिन्तन करने लगे तो इस को ब्रह्ममय(ब्रह्मरूप) होने में कोई विलम्ब नहीं लगेगा ॥१६॥
(क्रमशः)

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