मंगलवार, 21 अक्टूबर 2014

*देवला प्रसंग*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*देवला प्रसंग*
३९०. समर्थाई । प्रतिपाल
ऐसो अलख अनंत अपारा, तीन लोक जाको विस्तारा ॥टेक॥
निर्मल सदा सहज घर रहै, ताको पार न कोई लहै ।
निर्गुण निकट सब रह्यो समाइ, निश्चल सदा न आवै जाइ ॥१॥
अविनाशी है अपरंपार, आदि अनंत रहै निरधार ।
पावन सदा निरंतर आप, कला अतीत लिप्त नहिं पाप ॥२॥
समर्थ सोई सकल भरपूर, बाहर भीतर नेड़ा न दूर ।
अकल आप कलै नहीं कोई, सब घट रह्यो निरंजन होई ॥३॥
अवरण आपै अजर अलेख, अगम अगाध रूप नहिं रेख ।
अविगत की गति लखी न जाइ, दादू दीन ताहि चित्त लाइ ॥४॥
देवले ग्राम में दयालदासजी को उक्त ३९० के पद से उपदेश किया था । 
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फिर वहाँ ही ठाकुर वैरीसाल को ४५ का पद -
४५. गर्व हानिकर । पंचम ताल
गर्व न कीजिये रे, गर्वै होइ विनाश ।
गर्वै गोविन्द ना मिलै, गर्वै नरक निवास ॥टेक॥
गर्वै रसातल जाइये, गर्वै घोर अन्धार ।
गर्वै भौ - जल डूबिये, गर्वै वार न पार ॥१॥
गर्वै पार न पाइये, गर्वै जमपुर जाइ ।
गर्वै को छूटै नहीं, गर्वै बँधे आइ ॥२॥
गर्वै भाव न ऊपजै, गर्वै भक्ति न होइ ।
गर्वै पिव क्यों पाइये, गर्वै करै जनि कोइ ॥३॥
गर्वै बहुत विनाश है, गर्वै बहुत विकार ।
दादू गर्व न कीजिये, सन्मुख सिरजनहार ॥४॥
इस पद से उपदेश किया था । फिर ३८० के पद से -
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३८०. क्रीड़ा तालश्वण्डनि
डरिये रे डरिये, तातैं राम नाम चित धरिये ॥टेक॥
जिन ये पँच पसारे रे, मारे रे ते मारे रे ॥१॥
जिन ये पँच समेटे रे, भेटे रे ते भेटे रे ॥२॥
कच्छप ज्यों कर लीये रे, जीये रे ते जीये रे ॥३॥
भृंगी कीट समाना रे, ध्याना रे यहु ध्याना रे ॥४॥
अजा सिंह ज्यों रहिये रे, दादू दर्शन लहिये रे ॥५॥
इस पद से जैताकायस्थ को वहां ही उपदेश किया था । फिर देवले से आमेर पधार गये थे ।

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