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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२७. अबल वैराग्य । त्रिताल ~
ता सुख को कहो का कीजै, जातैं पल पल यहु तन छीजै ॥ टेक ॥
आसन कुंजर सिर छत्र धरीजै, ताथैं फिरि फिरि दुःख सहीजै ॥ १ ॥
सेज सँवार, सुन्दरी संग रमीजै, खाइ हलाहल भरम मरीजै ॥ २ ॥
बहु विधि भोजन मान रुचि लीजै, स्वाद संकट भ्रम पाश परीजै ॥ ३ ॥
ये तज दादू प्राण पतीजै, सब सुख रसना राम रमीजै ॥ ४ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ऐसे सुख का कहो क्या करें ? जिस सुख के भोगने से, यह शरीर क्षण - क्षण में दुखों को प्राप्त होवे । जैसे राज - सुख अर्थात् हाथी के ऊपर आसन लगाकर बैठे, मस्तक पर सोने का छत्र झूले, आगे - पीछे सेवक सेवा में खड़े रहें, परन्तु परमेश्वर का स्मरण किये बिना इस राज - सुख का फल तो बारंबार नरक की ही त्रास भोगनी पड़ती है और सुन्दर सेज के ऊपर, मन इच्छित स्त्री के साथ रमण करने रूप सुख का उपभोग करके भ्रम में फँसकर, बारंबार जन्म - मरण को प्राप्त होता है । और नाना प्रकार के इच्छानुसार भोजन की चाहना करके स्वादों के वशीभूत होकर यमराज के दूतों की फाँसी गले मे पड़ती है । उपरोक्त सब सुखों का त्याग करके, हे जीव ! सर्वसुखरूप परमेश्वर के नाम का रसना के द्वारा स्मरण करके रमते राम में अपने मन को रमाइये ।
छन्द ~
बेर बेर कह्यो तोहि सावधान क्यूँ न होइ,
ममता की मोट सिर काहे कूँ धरत है ।
मेरो धन मेरो धाम, मेरे सुत मेरी बाम,
मेरे पसू मेरो ग्राम, भूल्यो यूं फिरत है ।
तूँ तो भयो बावरो बिकाइ गई बुद्धि तेरी,
ऐसो अंध कूप गृह तामें तूँ परत है ।
सुन्दर कहत तोहि नेक हू न आवे लाज,
काज को बिगार के अकाज क्यों करत है ॥ २७ ॥
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