बुधवार, 22 अक्टूबर 2014

= “त्रयो विं. त.” ७/९ =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
.
*(“त्रयोविंशति तरंग” ७/९)*
.
*वाणी के बारे में विचार विमर्ष -* 
संस्कृत के पद कठिन हैं, मन्दबुद्धि नर होय ।
बांचि सके नहिं ग्रन्थ को, भक्ति न लहि हैं कोय ॥७॥ 
भक्ति बिना नहिं ज्ञान हो, ज्ञान बिना नहिं प्यास ।
प्यास बिना नहिं ध्यान लगि, निज पद लहे न दास ॥८॥ 
संस्कृत के बहु काव्य मुनि, पूरब रचे अनेक ।
ताँ की कवि भाषा करे, याँ कलिकाल विवेक ॥९॥ 
भक्ति की व्यवहारोचित प्रेरणा के बिना ज्ञान का उदय नहीं हो सकता, और समुचित ब्रह्म ज्ञान के बिना प्रभु - विरह की प्यास नहीं जगती । जब प्रभुमिलन की प्यास ही नहीं जगेगी, तो प्रभु में ध्यान कैसे लगेगा ? इस तरह भक्ति के सोपान से आगे बढ़ते हुये जब तक अखण्ड ध्यान तक साधक नहीं पहुँचेगा, तो उसे निज पद की प्राप्ति कैसे होगी । अत: सरल, सरस, लौकिक भाषा में ही वाणी रचना कीजिये । संस्कृत भाषा में तो पूर्वकालिक कवियों ॠषियों ने अनेक काव्य रच रखे हैं, उन्हें समझने के लिये वर्तमान में कवि गण उन संस्कृत काव्यों का लौकिक भाषाओं में अनुवाद कर रहे हैं, क्योंकि कलियुग के प्राणियों में विवेक अत्यल्प होता है, अत: अल्पमति जीवों के उद्धार हेतु भक्ति ज्ञान का उपदेश सरल भाषा में ही रचना उचित है ॥७-९॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें