रविवार, 26 अक्टूबर 2014

#daduji 

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
३०. उपदेश चेतावनी । त्रिताल ~
का जिवना का मरणा रे भाई, जो तैं राम न रमसि अघाई ॥ टेक ॥
का सुख संपत्ति छत्रपति राजा, वनखंड जाइ बसे किहिं काजा ॥ १ ॥
का विद्या गुन पाठ पुराना, का मूरख जो तैं राम न जाना ॥ २ ॥
का आसन कर अहनिशि जागे, का फिर सोवत राम न लागे ॥ ३ ॥
का मुक्ता, का बंधे होई, दादू राम न जाना सोई ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि हे भाई ! जो तूँ मनुष्य जन्म पाकर, रमता राम का स्मरण करके तृप्त नहीं हुआ, तो क्या जीना में जीना है ? जीना और मरणा समान ही है । छत्रपति राजा होकर सम्पत्ति का उपभोग किया तो इससे क्या तृप्ति होती है ? यदि राज्य आदि का उपभोग करने से तृप्ति हो जाती, तो राजा लोग राज्य छोड़ किसलिये वन में जाकर बसते ? हे अज्ञानी मानव ! यदि राम का स्मरण नहीं जाना, तो तेरी अधिक विद्या और नाना प्रकार के गुण, अनेकों कलायें, धर्म - शास्त्र आदिकों के पठन - पाठन से क्या लाभ होता है ? और निर्गुण राम का स्मरण नहीं किया, तो आसन लगाकर, नाना प्रकार की सिद्धियों की साधना से क्या लाभ होगा ? जिन्होंने राम का अद्वैत रूप नहीं जाना, उनकी मुक्ति में और बन्धन में क्या विशेषता है ? वे तो दोनों ही समान हैं, अर्थात् वाणी से अपने को मुक्त हुआ कहता है, परन्तु ब्रह्म स्वरूप राम को नहीं जाना तो वह बंधा हुआ ही है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें