#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*१२. चाणक को अंग*
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*ऊरध पाइ अधौमुख व्है करि,
घूँटत धूमहिं देह झुलावै ।
मेघहु शीतहु घाम सहै सिर,
तीनहु काल महा दुख पावै ॥
हाथ कछू न परै कबहूं कन,
मूरख कूकस कूटि उड़ावै ।
सुन्दर वाछि बिषै सुख कौं,
घर बूड़त है अरु झांझण गावै ॥९॥
कोई दुष्कर तपस्या करने वाला साधक ऊपर पैर और नीचे शिर कर गीली लकड़ियों का धूँवा घोंटता हुआ अपना देह झुलाता रहता है ।
साथ ही वर्षा, सर्दी, गर्मी आदि दुःख द्वंदों को तीनों काल सहन करता रहता है ।
परन्तु इतना करने पर भी उसको कोई आध्यात्मिक उपलब्धि नहिं होती । केवल वह मूर्ख कूट कूट कर मानों भूसा ही उड़ाता है ।
श्री सुन्दरदास जी कहते हैं - वह तो विषय - सुखोपभोग की वासना करता हुआ इस भवसागर में डूब रहा है, तथा इसी में वह हर्ष मनाता हुआ झांझ बजा रहा है१॥९॥
(१. मारवाड़ में, हर्ष के अवसर पर, झांझन गीत गाये जाते हैं ।)
(क्रमशः)

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