गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014

#daduji 
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
३३. मन प्रति उपदेस । निसारुक ताल ~
काहे रे मन राम विसारै, मनखा जन्म जाय जिव हारै ॥ टेक ॥
मात पिता को बन्धन भाई, सब ही सुपना कहा सगाई ॥ १ ॥
तन धन जोबन झूठा जाणी, राम हृदय धर सारंग प्राणी ॥ २ ॥
चंचल चितवत झूठी माया, काहे न चेतै सो दिन आया ॥ ३ ॥
दादू तन मन झूठा कहिये, राम चरण गह काहे न रहिये ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव मन को उपदेश करते हैं कि हे मन ! राम को क्यों भूलता है ? यह मनुष्य जन्म राम का स्मरण एवं सत्य कर्मों के बिना व्यर्थ ही जा रहा है । हे मन रूप जीव ! इसमें तो तेरी हार है । माता है, पिता है, भाई हैं, स्त्री हैं, बान्धव पुत्र हैं, ये तो सब तुझे बांधने वाले हैं और ये सब स्वप्न - सृष्टि की भाँति प्रतिभासक सत्ता वाले हैं । और हे मन ! यह तन - मन, जवानी अवस्था आदि तो सब मिथ्या हैं । निर्गुण राम का निश्‍चय अन्तःकरण में धारण कर । उनकी आज्ञा रूपी हाथ में काल - चक्र घूमता है । और यह माया तो चंचला है, इसका क्या चिन्तन करता है ? यह तो स्वरूप से मिथ्या है । अब तूँ हे मन ! अज्ञान से सचेत होकर क्यों नहीं देखता है ? तेरे अन्तकाल का दिन समीप आ रहा है । हे जीव ! यह तन और मन, राम की भक्ति के बिना सब निऱर्थक ही जाता है । राम की भक्ति से ही तन - मन की सार्थकता है । अब हृदय - प्रदेश में राम के तेजपुंज रूपी चरणों की शरण ग्रहण कर । इसी में तेरा कल्याण है ।
छन्द ~
कौन कुबुद्धि भई घट अंदर, तूँ अपने प्रभु सों मन चोरै । 
भूल गयो बिषिया सुख में सठ, लालच लाग रह्यो अति थोरै ।
ज्यूं कोउ कंचन छार मिलावत, लेकर पत्थर सौं नग फोरै । 
सुन्दर या नर देह अमोलक, तीर लगी नवका कित बोरै ॥ ३३ ॥

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