गुरुवार, 9 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ १८

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग* 
*कबहूं तौ पांख कौ परेवा कै दिखावै न,*
*कबहूं क धूरि के चांवर करि लेत है ।* 
*कबहूं तौ गोटिका उछारत आकाश ओर,* 
*कबहूं क राते पीरे रंग श्याम शेत है ॥* 
*कबहूं तौ आंब कौ उगाइ करि ठाडौ करै,* 
*कबहूं तौ शीस धर जुदे कर देत है ।* 
*बाजीगर कौ सौ ख्याल सुन्दर करत मन,* 
*सदाई भ्रमत रहै ऐसौ कोऊ प्रेत है ॥१८॥* 
*मन बाजीगर के सदृश* : यह हमारा मन बाजीगर की तरह कभी अपने शरीर पर पक्षी के पंख लगा कर दिखाता है, कभी धूल के कणों से चाँवल के कण बनाने लगता है । 
कभी आकाश में गोलियाँ उछालने लगता है, कभी लाल पीले काले या सफ़ेद रंग की चीजें दिखाने लगता है । 
कभी कृत्रिम आम्रवृक्ष खड़ा कर देता है, कभी किसी के शरीर के निचले भाग(धड़) से शिर को पृथक् कर दिखाता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - हमारे मन के ये सभी समग्र क्रियाकलाप किसी बाजीगर या भूत - प्रेत के समान ही हैं । और यह भूत प्रेत के समान ही सदा इधर उधर घूमता रहता है ॥१८॥
(क्रमशः)

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