गुरुवार, 23 अक्टूबर 2014

#daduji 

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२८. उपदेश । एकताल ~
मन निर्मल तन निर्मल भाई, आन उपाइ विकार न जाई ॥ टेक ॥
जो मन कोयला तो तन कारा, कोटि करै नहिं जाइ विकारा ॥ १ ॥
जो मन विषहर तो तन भुवंगा, करै उपाइ विषय पुनि संगा ॥ २ ॥
मन मैला तन उज्जवल नांहीं, बहु पचहारे विकार न जांहीं ॥ ३ ॥
मन निर्मल तन निर्मल होई, दादू साच विचारै कोई ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज सत्य उपदेश करते हैं कि हे जिज्ञासु ! मन, पाप आदि मल से रहित होगा तो शरीर भी सब दोषों से मुक्त हो जायेगा और दूसरे साधनों से मन के विकार नहीं निवृत्त होंगे । जो मन पाप आदि दोषों से कोयले के समान काला होगा, तो तन भी सदोष बना रहेगा । बहिरंग कितने ही सकाम कर्म - रूपी, साधन कर्म कर लो, तब भी तन - मन उज्जवल नहीं होंगे । जो मन विषय - वासना रूप विष से विषधर रूप है, तो तन भी सर्प रूप ही है । उस समय इन्द्रियों के विषय प्राप्ति के ही साधन करेंगे । मन मलीन है वासनाओं से, तो शऱीर, इन्द्रियें आदि निर्दोष नहीं हो सकते । बहिरंग साधनों से बहुत से पच - पच कर के थक गये, परन्तु मन, इन्द्रिय और शरीर आदि निर्दोष नहीं हुए । जब मन सत्य - कामी, सत्य - प्रेमी, सत्य - नेमी बनेगा, तभी मन निर्मल होगा । तब फिर शरीर इन्द्रिय भी निर्मल हो जायेंगे । परन्तु जो साधक मन से, वचन से, तन से, सत्य सम्बन्धी निष्काम कर्मों को विचार - पूर्व करेंगे, उन्हीं का तन, मन, इन्द्रियाँ उज्जवल बनेंगी ।

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