शनिवार, 18 अक्टूबर 2014

१२. चाणक को अंग ~ १


॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
.
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१२. चाणक१ को अंग* 
*मनहर छन्द -* 
*जोई जोई छूटिबे कौ करत उपाइ अज्ञ,* 
*सोई सोई दिढ करि बंधन परतु है ।* 
*जोग जज्ञ जप तप तीरथ ब्रतादि और,* 
*झंपापात लेत जाइ हिंमारै गरतु है ॥* 
*कांनऊ फराइ पुनि केसऊ लुंचाई अंग,* 
*बिभूति लगाइ सिर जटाऊ धरतु है ।* 
*बिनु ज्ञान पाये नहिं छूटत हृदै की ग्रन्थि,* 
*सुन्दर कहत यौं ही भ्रमि कै मरतु है ॥१॥* 
*भ्रमात्मक पुरुष की मृत्यु निश्चित* : यह मूर्ख अज्ञ पुरुष इस जगद्बन्धन से मुक्ति पाने का जो - जो प्रयास करता है, उस उस प्रयास से उस बन्धन में पूर्व से भी अधिक दृढ़ ग्रन्थि पड़ती जाती है । 
योग, यज्ञ, जप, तप, तीर्थयात्रा, व्रत आदि तथा किसी पर्वत के चौरप्रताप से गिरना, एवं हिमालय में जाकर वहाँ बर्फ में गल जाना । 
कानों में छिद्र कराकर नाथ - सम्प्रदाय की साधना, केशों को लुञ्चित करते हुए जैन पद्धति की साधना, शरीर पर भस्म लगाकर जटा बढा कर तपस्या करना । 
ये सभी कर्म ज्ञान के बिना, जगद्बन्धन की ग्रन्थि को पूर्वापेक्षया अधिक दृढ़ करने वाले ही हैं । अतः *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - वह मूर्ख ब्रह्मज्ञान प्राप्त किये बिना भ्रमजाल में फँसा हुआ ही मर जाता है(संशयात्मा विनश्यति) ॥१॥ 
(१. चाणक - कशा(कोरड़ा), ताजणा(चाबुक), चपेटा(थप्पड़) ।) 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें