॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*१२. चाणक१ को अंग*
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*मनहर छन्द -*
*जोई जोई छूटिबे कौ करत उपाइ अज्ञ,*
*सोई सोई दिढ करि बंधन परतु है ।*
*जोग जज्ञ जप तप तीरथ ब्रतादि और,*
*झंपापात लेत जाइ हिंमारै गरतु है ॥*
*कांनऊ फराइ पुनि केसऊ लुंचाई अंग,*
*बिभूति लगाइ सिर जटाऊ धरतु है ।*
*बिनु ज्ञान पाये नहिं छूटत हृदै की ग्रन्थि,*
*सुन्दर कहत यौं ही भ्रमि कै मरतु है ॥१॥*
*भ्रमात्मक पुरुष की मृत्यु निश्चित* : यह मूर्ख अज्ञ पुरुष इस जगद्बन्धन से मुक्ति पाने का जो - जो प्रयास करता है, उस उस प्रयास से उस बन्धन में पूर्व से भी अधिक दृढ़ ग्रन्थि पड़ती जाती है ।
योग, यज्ञ, जप, तप, तीर्थयात्रा, व्रत आदि तथा किसी पर्वत के चौरप्रताप से गिरना, एवं हिमालय में जाकर वहाँ बर्फ में गल जाना ।
कानों में छिद्र कराकर नाथ - सम्प्रदाय की साधना, केशों को लुञ्चित करते हुए जैन पद्धति की साधना, शरीर पर भस्म लगाकर जटा बढा कर तपस्या करना ।
ये सभी कर्म ज्ञान के बिना, जगद्बन्धन की ग्रन्थि को पूर्वापेक्षया अधिक दृढ़ करने वाले ही हैं । अतः *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - वह मूर्ख ब्रह्मज्ञान प्राप्त किये बिना भ्रमजाल में फँसा हुआ ही मर जाता है(संशयात्मा विनश्यति) ॥१॥
(१. चाणक - कशा(कोरड़ा), ताजणा(चाबुक), चपेटा(थप्पड़) ।)
(क्रमशः)

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