शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014

१२. चाणक को अंग ~ ७

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१२. चाणक को अंग* 
*कोऊ फिरै नागै पाइ, कोऊ गूदरी बनाइ,*
*देह की दशा दिखाइ, आइ लोक घुट्यौ है ।* 
*कोऊ दूधाहारी होइ, कोऊ फलाहारी तोइ,* 
*कोऊ अघोमुख झूलि, झूलि घूम घुट्यौ है ॥* 
*कोऊ नहिं खाहिं लौंन, कोऊ मुख गहै मौंन,* 
*सुन्दर कहत यौं ही, बृथा भुस कूट्यौ है ।* 
*प्रभु सौं न प्रीति मांहि, ज्ञान सौं परचै नांहि,* 
*देखौ भाई आंधरनि ज्यौं बाजार लूट्यौ है ॥७॥* 
कोई साधना का अभिनय करता हुआ नंगे पैर घूमता है, कोई वस्त्र के नाम पर केवल गुदड़ी(सिली हुई पुरानी रजाई) ओढता है, इस तरह अपने शरीर की दीन हीन दशा दिखाकर जनता को लूटता रहता है । 
कोई दूसरा साधक दुग्धाहारी तथा फलाहारी होने का, तथा कोई ओंधे मुख होकर वृक्ष आदि पर लटक कर अग्नि का धूँआ घोंटने का अभिनय करता है । 
कोई बिना नमक का भोजन करने का, तथा कोई मौनव्रत का अभिनय करता हुआ, *श्री सुन्दरदास जी* के कथनानुसार, निष्फल भुस कूटने के समान ही कार्य करता है । 
क्योंकि, वे कहते हैं - उसके हृदय में प्रभु के प्रति कोई स्नेह नहीं है, न कोई ब्रह्मज्ञान का साक्षात्कार ही है । यह तो भाई ! ऐसी ही बात हुई कि जैसे बहुत से अन्धे मिलकर किसी जनाकीर्ण बाजार को लूटने के लिये निकल पड़े ॥७॥ 
(क्रमशः)

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