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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*१२. चाणक को अंग*
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*धार बह्यौ खंग धार हुयौ,*
*जल धार सह्यौ गिरिधार गिरयौ है ।*
*भार संच्यौ धन भारथ हूँ करि,*
*भार लह्यौ सिर भार परयौ ॥*
*मार तप्यौ बहि मार गयौ,*
*जम मार दई मनतौ न मरयौ है ।*
*सार तज्यौ खुट सार पढ्यौ,*
*कहि सुन्दर कारिज कौंन सर्यो है ॥१२॥*
भले ही कोई गंगा की धारा में प्रवाहित हो जाय, तलवार(खड़्ग) की तीक्ष्ण धार से अपना गला काट ले या प्रबल वर्षा एवं आंधी का भी कष्ट सहे, या किसी ऊँचे पहाड़ से नीचे छलांग लगा दे ।
तो भी इन सब कार्यों से उसका कुछ भला होने वाला नहीं है, क्योंकि उसने भार ढोने वाले बैल की तरह पच पच कर यह धन संचित किया है । इस धन की तृष्णा ही उसके लिये भाररूप बन गयी है ।
उसने इतनी कठोर तपस्या द्वारा मृत्यु को भले ही डरा दिया हो, परन्तु उसका मन अभि नहीं मरा(तृष्णा रहित नहीं हुआ) है ।
उसने भौतिक धन का परित्याग कर, यह खोटा(तृष्णा रूप) धन एकत्र करने का मन बना लिया है, *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इससे उसका क्या भला होने वाला है ॥१२॥
(क्रमशः)

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