शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ १२


॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग*
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*कै बर तू मन रंग भयौ शठ,*
*मांगत भीख दसौं दिन डूल्यौ ।*
*कै बर तैं मन छत्र धर्यौ सिर,*
*कांमिनि संग हिंडोरनि झूल्यौ ॥* 
*कै बर तूं मन छीन भयौ अति,*
*कै बर तूं सुख पाइक फूल्यौ ।* 
*सुन्दर कै बर तोहि कह्यौ मन,*
*कौंन गली किहिं मारग भूल्यौ ॥१२॥* 
*मन को उपदेश* : अरे मूर्ख मन ! तूँ कितनी बार इतना कंगाल(निर्धन) हुआ है कि तुझे दशों दिशाओं दौड़ कर भीख माँगनी पड़ी । 
कितनी बार तूँ छत्रधारी राजा बनकर नयनाभिराम नारियों के साथ झूले पर बैठकर झूला है । 
कितनी बार तूँ अत्यधिक क्षीण होकर संकट में पड़ा है, और कितनी बार तूँ अत्यधिक सुख से प्रमुदित हुआ है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - रे मन ! तुझे किस गली या किस मार्ग से चलना है, जिससे तूँ सत्कर्म कर सके - इसे तूँ सर्वथा भूल चुका है ॥१२॥ 
(क्रमशः)

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