रविवार, 23 नवंबर 2014

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*#श्रीदादूदयालवाणी०आत्मदर्शन* द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग गौड़ी १(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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५७. प्रश्‍न । पंजाबी त्रिताल ~
अलख देव गुरु ! देहु बताइ, 
कहाँ रहो त्रिभुवनपति राइ ॥टेक॥
धरती गगन बसहु कैलास, 
तिहूँ लोक में कहाँ निवास ॥१॥
जल थल पावक पवनां पूर, 
चंद सूर निकट कै दूर ॥२॥
मंदिर कौण, कौण घरबार, 
आसण कौण कहो करतार ॥३॥
अलख देव ! गति लखी न जाइ, 
दादू पूछै कहि समझाइ ॥४॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव परमेश्‍वर से प्रश्‍न करते हैं कि हे तीनों लोकों के स्वामियों के राजन् पतराज ! हे मन इन्द्रियों के अविषय परब्रह्म रूप गुरुदेव ! आप कहाँ निवास करते हो ? यह बताओ । पृथ्वी पर या आकाश में अथवा कैलाश में बसते हो ? या तीनों लोकों में कहाँ निवास करते हो ? हे नाथ ! जल पृथ्वी, पवन, अग्नि, क्या इनमें आप पूर्ण रूप से व्यापक हो रहे हो ? चन्द्रमा सूर्य के आप नजदीक हैं या दूर हैं ? और आपका मन्दिर कौन है ? आपके घर बार कौन से हैं ? और हे करतार ! आपका आसन कौनसा है ? जिस पर आप स्थित हो । हे अलखदेव ! आपकी गति कहिये रहन सहन, हमसे जानी नहीं जाती हैआप ही कृपा करके, हमको समझाकर कहो ।
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उत्तर की साखी
दादू मुझ ही मांहीं मैं रहूँ, मैं मेरा घरबार ।
मुझ ही मांहीं मैं बसूं, आप कहै करतार ॥१॥
दादू मैं ही मेरा अर्श में, मैं ही मेरा स्थान ।
मैं ही मेरी ठौर में, आप कहै रहमान ॥२॥
दादू मैं ही मेरे आसरे, मैं मेरे आधार ।
मेरे तकिये मैं रहूँ, कहै सिरजनहार ॥३॥
दादू मैं ही मेरी जाति में, मैं ही मेरा अंग ।
मैं ही मेरा जीव में, आप कहै प्रसंग ॥४॥
सुख अनन्त हरि नाम में, जाका वार न पार ।
जन रज्जब आनन्द है, सुमिरऊँ सिरजनहार ॥
सकल सुखी हरि नाम सूं, मनसा बाचा मान ।
जन रज्जब रुचि सौं रटो, यह जीव जीवनी जान ॥५७॥

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