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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
३७ एकताल ~
मन मूरखा, तैं क्या किया ? कुछ पीव कारण वैराग न लिया,
रे तैं जप तप साधी क्या दिया ॥ टेक ॥
रे तैं करवत काशी कद सह्या, रे तूँ गंगा मांहीं ना बह्या,
रे तैं विरहनी ज्यों दुख ना सह्या ॥ १ ॥
रे तैं पालै पर्वत ना गल्या, रे तैं आप ही आपा ना दह्या,
रे तैं पीव पुकारी कद कह्या ॥ २ ॥
होइ प्यासे हरि जल ना पिया, रे तूँ बज्र न फाटो रे हिया ।
धिक् जीवन दादू ये जिया ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरु अपने मन को उपलक्षण करके उपदेश करते हैं कि हे मन मूर्ख ! तूँने परमेश्वर की प्राप्ति के लिये विषयों से कुछ भी वैराग्य धारण नहीं किया ? हे मन ! तूँने जप - तप करके परमेश्वर को क्या दिया ? और तूँ परमेश्वर की प्राप्ति के लिये, काशी - करौत जैसा दुःख कब सहा है ? परमेश्वर की प्राप्ति के लिये कभी तैने गंगा स्नान किया है ? हे मन, तूँ ने विरहनी की तरह प्रभु - वियोग का दुःख कभी सहा है ? रे तूँ हिमालय में जाकर, प्रभु प्राप्ति के लिये कभी गला है । हे मन मूर्ख ! तूँने अपने अहंकार को कभी विरह रूप अग्नि में जलाया है ? हे मन ! तूँने कभी हृदय की पुकार से पीव का स्मरण किया है ? मूर्ख मन ! तूँ ने कभी अत्यन्त हरि दर्शनों की प्यास से ! राम - नाम जल नहीं पीया । हे हमारे हृदय ! तुम बज्र के समान कठोर हो जो हरि के दर्शन न होने पर भी दुःख से फटते नहीं हो । ऐसे जीव के जीने में धिक्कार है, जो प्रभु विमुख होकर, जीता है ।
दृष्टान्त ~ तुलसीदास जी संत होने के बाद घूमते - घूमते अपने गाँव में आये । गाँव वाले उनका सत्संग सुनने लगे और क्रम - क्रम से सेवा भी करने लगे । इनकी स्त्री भी सत्संग में आई और बोली ~ कि कल भोजन का सामान मैं लाऊँगी । जब दूसरे दिन वह रसोई का सामान सब लाई, परन्तु हल्दी नहीं लाई । तुलसीदास जी ने सब सामान देखा और बोले ~ हल्दी तो नहीं लाई । वह बोली - महाराज ! अभी लाती हूँ । तुलसीदास जी बोले ~ नहीं, अब मत लाओ, हमारे खड़िया में हल्दी है, उसको काम में ले लेंगे । तब वह बोली -
हींग हलद खड़िया बसै, तो त्रिया क्यूँ त्यागि ।
कै मोकों खड़िये करो, कै ल्यो तीव्र वैराग ॥ ३७ ॥
यह सुनकर तुलसीदास जी के अन्दर के चक्षु खुल गये और झोली झन्डे भी वहीं डाल दिये । फिर उनका मन महान् वीतरागी होकर प्रभु भजन में सलग्न हो गये ।
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