सोमवार, 3 नवंबर 2014

= “त्रयो विं. त.” ३३/३४ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“त्रयोविंशति तरंग” ३३/३४)*
*देवगण उपस्थित परव के आकाश में आग्रह*
शक्र महेश मिले विष्णु विधि, 
गन्धर्व गावत हैं सुर साजे ।
शारद गंग गणेश सवै सुर, 
धन्य कहें गुरु लोक विराजे ।
ॠद्धि रु सिद्धि खड़ी सब हाजिर, 
देव बजावत दुन्दुभि बाजे ।
होय रुचि तहँ आप विराजहु, 
सेव सदा पद पंकज राजे ॥३३॥ 
श्री दादूजी के निजलोक रवाना के समय शक्र,(इंद्र) महेश, विष्णु, ब्रह्मा, शारदा, गंगा, गणेश आदि विविध देव तथा गन्धर्व उपस्थित हुये । गन्धर्व वाद्य बजाते हुये, गुरुदेव की महिमा का गान कर रहे थे । ॠद्धि सिद्धि हाथ जोड़कर सम्मुख सेवा में उपस्थित हुई । सभी देवगण गुरुदेव को यथारुचि निजलोक में पधारने हेतु आग्रह करने लगे ॥३३॥ 
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*शिवजी ब्रह्मा जी श्री विष्णु जी, लोकों के लीये आग्रह करते हुये*
संत चलो शिवलोक, कहें शिव, 
सुक्ख अनन्त, नहीं दुखलेशा ।
भाखि विरंचि चलो विधि लोकहिं, 
काल कृतान्त नहीं दुख केशा ।
विष्णु कहें सत लोक चलो तुम, 
अमृत को नित पान विशेषा ।
संत उलंध चले निज लोक जु, 
हो परवेश निरंजन देशा ॥३४॥
शिवजी ने शिवलोक पधारने हेतु आग्रह करते हुये कहा - हे संत दादूजी ! शिवलोक पधारिये, वहाँ अनन्त सुख हैं, दु:ख का लेशमात्र भी नहीं है । ब्रह्मा ने ब्रह्मलोक पधारने का आग्रह किया और कहा - विधि लोक में कृतान्त काल(यमराज) का कोई भय नहीं है । विष्णु ने सत्यलोक पधारने का प्रस्ताव रखते हुये कहा - वहाँ नित्य अमृत पान का आनन्द है । किन्तु संत श्री दादजी तीनों लोकों को उलंध कर निजलोक निरंजन प्रदेश(माया विकारों से रहित शुद्ध चैतन्य लोक) में पधार गये ॥३४॥ 
(क्रमशः)

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