रविवार, 2 नवंबर 2014

#daduji 

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
३६. उपदेश चेतावनी । एकताल ~
कौण जनम कहँ जाता है, अरे भाई, राम छाड़ि कहाँ राता है ॥ टेक ॥
मैं मैं मेरी इन सौं लाग, स्वाद पतंग न सूझै आग ॥ १ ॥
विषया सौं रत गर्व गुमान, कुंजर काम बँधे अभिमान ॥ २ ॥
लोभ मोह मद माया फंध, ज्यों जल मीन न चेतै अंध ॥ ३ ॥
दादू यहु तन यों ही जाइ, राम विमुख मर गये विलाइ ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि उपदेश करते हैं कि हे भाई ! तेरा यह मनुष्य शरीर किस लिये हुआ है ? अर्थात् परमेश्‍वर की प्राप्ति करने के लिये हुआ है, और तूँ किधर जा रहा है ? हे भाई ! राम का स्मरण त्यागकर कहाँ संसार में राता = रत हो रहा है । तूँ तो इस में और मेरा पन में फँस रहा है । जैसे पतंग दीपक की ज्योति रूप अग्नि को देखकर नेत्र - इन्द्रिय के स्वाद में लगकर भस्म हो जाता है । इसी प्रकार तूँ विषिया स्त्री आदि पदार्थों से रत्त होकर गर्व - गुमान को प्राप्त हो रहा है कि मेरे समान कौन है ? जैसे कुंजर हाथी काम - इन्द्रिय के वश में होकर कलाबूत की हथिनी देखकर गड्ढे में गिरता है और आप ही बन्धन में आ जाता है, इसी प्रकार तूँ लोभ, मोह, मद आदि माया रूप फंदों मैं फँस गया है । जैसे मछली जिह्वा के रस में लगकर प्राण गमा देती है, इसी प्रकार यह मनुष्य शरीर, विषयों में आसक्त प्राणियों का, उपरोक्त प्रकार से राम से विमुख जीव व्यर्थ ही खो देते हैं ।
आदम सेती औलिया, नर नारायण होइ । 
मुक्ति - द्वारा मानवी, देह रज्जब क्यों खोइ ॥ ३६ ॥

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