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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“त्रयोविंशति तरंग” ३१/३२)*
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श्री दादूजी की पालकी आकाश में विलुप्त हुई
दादु दयालु मिले भगवन्तहिं, सोले सो साठ रु ज्येठिहिं मासा ।
कृष्ण वसू अरु वार शनैश्चर, होय नक्षत्र घनिष्ठ सुभासा ।
बैठि विमान चले नभ मारग, सूरज कोटि प्रकाश उजारा ।
पौर सवा चढ़ते दिन स्वामी जी, पाय हरि कहं मांघव दासा ॥३१॥
इस तरह दीनदयालु श्री दादूजी विक्रम संवत् १६६० के ज्येष्ठ मास की कृष्णा अष्टमी शनिवार के दिन सवा प्रहर सूर्य चढ़ने पर घनिष्ठता नक्षत्र में ब्रह्म में लीन हो गये । उस समय आकाश में पालकी विराजित श्री दादूजी का प्रकाश कोटि सूर्य तुल्य दे दीप्ति हो रहा था ब्रह्म विष्णु महेश देवराज आदि अन्य सभी देव स्वागत में मौजुद थे ॥३१॥
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आमेर से टीलाजी - जगन्नाथ जी आये
अम्बपुरी चलि टील जु आवत, संग रहे जगन्नाथ लिवाई ।
बेगहिं दौरि चढे गिरि ऊपर, देखि विमान तिन्हें सुधि पाई ।
भय हरणां गिरि संत प्रयाणत, देवत दुन्दुभि व्योम बजाई ।
बैठि विमान सुदर्श दिये गुरु, टील जु देखत ही मुरझाई ॥३२॥
इतने में शिष्य टीलाजी जगन्नाथजी को साथ लेकर लौट आये गुरु विराजित पालकी को आकश में चढ़ते देखकर वे दौड़कर पर्वत पर चढ़ने लगे । आकाश में पुष्प वर्षा के साथ देवगण दुन्दुभि बजा रहे थे । टीलाजी की गुरुभक्ति और व्याकुलता देखकर गुरुदेव श्री दादूजी ने पालकी में विराजे हुये दर्शन देकर आश्वस्त किया, किन्तु गुरु वियोग की पीड़ा से टीलाजी मूर्छित हो गये ॥३२॥
(क्रमशः)

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