बुधवार, 5 नवंबर 2014

१२. चाणक को अंग ~ १७

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१२. चाणक को अंग*
*ज्यौं कोउ कोस कट्यौ नहिं मारग,*
*तेलकले धर मैं पशु जोये ।*
*ज्यौं बनिया गयौ बीस कै तीस कौ,*
*बीस हु मैं दसहू नहिं होये ॥* 
*ज्यौं कोउ चौबे छब्बे कौं चल्यौ पुनि,*
*होइ दुबे दुई गांठ के खोये ।* 
*तैसे हि सुन्दर और क्रिया सब,*
*रांम बिना निहचै नर रोये ॥१७॥* 
जैसे कोई तेली का बैल, दिन भर घाणी(तेलकल = तेलयंत्र) में चलता हुआ भी, एक या दो कोस मारग नहिं चल पाता, 
अथवा जैसे कोई वाणिक्(व्यपारी) अपने धन को, एक का डेढ़ बढ़ाने(बीस का तीस करने) निकले, तथा मार्ग में उसके किसी प्रमाद से उसका मूल धन(बीस) भी आधा(दस) ही रह जाय । 
अथवा, कोई 'चतुर्वेदी' ब्राह्मण दो वेद और पढ़ने('षड़वेदी' बनने) के लिये घर से निकले; परन्तु चलते चलते, स्मरण किये हुए भी दो वेद भूल 'द्विवेदी' ही रह जाय । 
इसी तरह श्री सुन्दरदास जी कहते हैं - मनुष्य अपनी अन्य सुविहित क्रियाओं को भी प्रभु - भजन के बिना नष्ट कर डालता है ॥१७॥ 
(क्रमशः)

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