शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

१३. बिपरीत ज्ञानी को अंग ~ ३

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
.
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१३. बिपरीत ज्ञानी को अंग*
*मुख सौं कहत ज्ञांन, भ्रमै मन इन्द्रिय प्रांन,*
*मारग कै जल मैं न प्रतिबिंब लहिये ॥* 
*गांठि मैं न पैका कोऊ भयौ रहै साहूकार१,* 
*बातनि ही मुहर रुपैया गिनि गहिये ॥* 
*सुपने मैं पंचामृत जीमि कै तृपति भयौ,* 
*जागै तैं मरत भूख खाइबे कौं चाहिये ॥* 
*सुन्दर सुभट जैसे काइर मारत गाल,* 
*राजा भोज सम कहां गंगौ तेली कहिये ॥३॥* 
(१. तु० - श्रीदादूवाणी - पैका नांही गांठड़ी, सिरै साहूकार ।) 
*राजा भोज की गंगू तेली से तुलना* : ये(ऐसे कृत्रिम ज्ञानी) मुख से भले ही ब्रह्म का उपदेश करते रहें, परन्तु इनके मन एवं इन्द्रिय तो अगत्प्रपञ्च में ही रमे हुए रहते हैं क्या मार्ग के मलिन जल में मुख की छाया देखि जा सकती है । 
इनकी स्थिति तो साहूकार जैसी है जिसकी गाँठ में एक पैसा न हो पर उतने से स्वयं को लोक में धनपति प्रख्यापित करे और केवल मुख से सोने की मुहर तथा चाँदी के रुपयों की बात करे । 
अथवा, जैसे कोई स्वप्न में पंच मेवा, मिष्ठान खा कर तृप्त हो जाय, परन्तु जगने पर तीव्र भूख का भान होने पर खाने के लिये कुछ भी माँगने लगे ।
अथवा जैसे कोई कायर योद्धा अपने साथियों के सम्मुख अपनी वीरता को डींग मारे; परन्तु युद्धस्थल में जाने से कतराता रहे । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - ऐसे वास्तविक एवं कृत्रिम ज्ञान की समानता कैसी ! यह तो राजा भोज की गंगू तैली से समानता करना होगा ! ॥३॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें