॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
३८. यतिताल ~
क्या कीजै मनिखा जन्म को, राम न जपहि गँवारा रे ?
माया के मद मातो बहे, भूल रह्या संसारा रे ॥ टेक ॥
हिरदै राम न आवई, आवै विषय विकारा रे ।
हरि मारग सूझै नहीं, कूप परत नहीं बारा रे ॥ १ ॥
आपा अग्नि जु आप में, तातैं अहनिशि जरै शरीरा रे ।
भाव भक्ति भावै नहीं, पीवै न हरि जल नीरा रे ॥ २ ॥
मैं मेरी सब सूझई, सूझै माया जालो रे ।
राम नाम सूझै नहीं, अंध न सूझै कालो रे ॥ ३ ॥
ऐसैं ही जन्म गमाइया, जित आया तित जाये रे ।
राम रसायन ना पिया, जन दादू हेत लगाये रे ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि हे मूर्ख मानव ! हे गँवार ! राम - नाम का स्मरण इस मनुष्य शरीर में नहीं किया, तो फिर इस मनुष्य शरीर का क्या करेगा ? विषय - सुख तो सभी योनियों में प्राप्त होते हैं, यह शरीर तो परमेश्वर की भक्ति के लिये मिला है । हे मूर्ख ! तूँ प्रभु - स्मरण को भूलकर, माया के मद में मतवाला होकर संसार में इधर - उधर घूम रहा है । तूँ अपने हृदय में राम - नाम का स्मरण कभी नहीं करता है । सदैव शब्द स्पर्श आदि विषय, और काम आदि विकारों का ही चिन्तन करता रहता है, परन्तु परमेश्वर के पास ले जाने वाला परोपकार और परमेश्वर की भक्ति, तेरे को नहीं दिखती है । किन्तु विषय - वासना रूपी संसार - कूप में ही तूँ पड़ता है, और आपा अभिमान रूपी अग्नि में तेरा शरीर जलता रहता है, फिर भी तेरे को संसार से वैराग्य नहीं होता और परमेश्वर की भक्ति प्रिय नहीं लगती है । तैनें कभी भी हरि के प्रेमाभक्ति रूपी अमृत जल को नहीं पीया । हे मूर्ख ! तुझे “मैं और मेरापन” ही दिखता है । हे विवेक - विचाररू पी आंखों से अन्धे ! न तो तूँ काल को ही देखता है और न राम - नाम का स्मरण ही करता है । इसी प्रकार तूँने, इस मनुष्य शरीर को वृथा ही नष्ट कर दिया है । और कभी भी राम - रसायन को तूँने नहीं पीया । हे मूर्ख ! चौरासी को भोग कर मनुष्य के शरीर में आया था । अब तूँ फिर उन्हीं चौरासी लाख योनियों में जाने के काम कर रहा है ।
रे प्राणी पासा पड़्या, मानुस देही मांहि ।
जन रज्जब जगदीश भज, यह औसर भी नांहि ॥ ३८ ॥
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