मंगलवार, 4 नवंबर 2014

= “त्रयो विं. त.” ३५/३६ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“त्रयोविंशति तरंग” ३५/३६)*
*छप्पय*
*देवगण कोतुहल आकाश में ~*
भय हरण गिरि होत कौतुक, 
विशद पावन भूधरा ।
देव मिलि नभ पुष्प वर्षत, 
गाय गंधर्व सुन्दरा ।
शक्र बिबुधा आय स्वागत, 
सिद्धि ॠधि जोरत करा ।
गंग गौरि गणेश सुर सब, 
विविध वाणी उच्चरा ॥३५॥ 
इस तरह पावन तपोभूमि भयहरण गिरि पर अद्भुत कौतुक हुआ था देवताओं ने आकाश से पुष्प वर्षा की थी । गन्धर्वों ने संत महिमा गाई थी । शक्र आदि विविध देवगण संत श्री दादूजी के स्वागत हेतु पधारे थे । ॠद्धि सिद्धि सेवा में हाजिर हुई थी । गंगा, गौरी, गणेश आदि देवताओं ने संत महिमा मे विविध प्रशस्तियाँ उच्चारित की थी ॥३५॥ 
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*श्रीदादूजी और देवताओं का दृश्य शिष्यों ने देखा प्रत्यक्ष ~*
*छन्द*
देवलोक उलंध स्वामिजु, 
पाय निजपद तपबलम् ।
भक्ति ज्ञान सुथाप कलि मध, 
भक्त नाशत कलिमलम् ।
ब्रह्म ज्ञान न जान पावे, 
मंदमति भुवि जो खलम् ।
मिटत संशय, धरत श्रद्धा, 
पठत चित हो निर्मलम् ॥३६॥ 
तपस्वी स्वामी श्री दादूजी देव लोकों को उलंघ कर अपने तपोबल के प्रभाव से निरंजन निज लोक में पधार गये । देवगणों की उपस्थिति के समक्ष श्री दादूजी का निजलोक प्रवेश तत्रस्थ संतों और सेवकों ने प्रत्यक्ष देखा था । इस अद्भुत लीला को ब्रह्म ज्ञान के बिना धरती का मन्दबुद्धि, साधारण जीव तथा दुष्ट प्रकृति के प्राणी कभी नहीं समझ सकते । यह अद्भुत लीला वस्तुत: हुई थी, अन्य संतों के साथ मैं, ग्रन्थकर्ता माधवदास प्रत्यक्षदर्शी रहा हू । जो श्रद्धालु इस प्रसंग को विश्‍वास के साथ पढ़ेंगे, सुनेंगे - उनका संशय अवश्य दूर होगा, चित्त निर्मल हो जावेगा ॥३६॥ 
(क्रमशः)

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