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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध) राग गौड़ी १(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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६१. भेष । पंचम ताल ~
भेष न रीझे मेरा निज भर्तार,
तातैं कीजै प्रीति विचार ॥टेक॥
दुराचारिणी रच भेष बनावै,
शील साच नहिं पिव को भावै ॥१॥
कंत न भावै करै श्रृंगार,
डिंभपणैं रीझै संसार ॥२॥
जो पै पतिव्रता ह्वै है नारी,
सो धन भावै पियहिं पियारी ॥३॥
पीव पहचानें आन नहिं कोई,
दादू सोई सुहागिनी होई ॥४॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर की प्राप्ति में भेष, भूषा कोई कारण नहीं है, क्योंकि वह हम विरहीजन भक्तों का निज भर्ता परमेश्वर, ऊपरी भेष - बाना आदि के धारण करने से राजी नहीं होते हैं । इसलिये उनसे अन्तःकरण में विचार पूर्वक स्नेह कीजिये ।
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जैसे दुराचार व्यभिचार करने वाली स्त्री नाना प्रकार का हार श्रृंगार करे, परन्तु उसके हृदय में शील कहिये ब्रह्मचर्य और पतिव्रत आदि सच्चा धर्म तो है नहीं, तो फिर वह स्त्री पीव को प्रिय नहीं लगती ।
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वह श्रृंगार करती है, परन्तु उसका श्रृंगार पति को प्रिय नहीं लगता । इसी प्रकार ऊपर भेष - बाना, माला - तिलक, काषाय वस्त्र आदि धारण करते हैं, परन्तु चरित्रवान् नहीं है, तो उनके पाखंड रूप श्रृंगार को देखकर सांसारिक प्राणी तो राजी होते हैं अर्थात् रीझते हैं,
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परन्तु परमेश्वर रूप पति नहीं रीझता । जिस पुरुष के पतिव्रता स्त्री होती है, उसको धन्य है, वही पति को प्रिय लगती है ।
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वह अपना पति, अपने पीव को ही जानती है । उसकी दृष्टि में और कोई दूसरा पुरुष है ही नहीं । वही पतिव्रता अटल सुहाग को प्राप्त होती है ।
(क्रमशः)
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