गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध) राग गौड़ी १(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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७१. परिचय सत्संग । पंजाबी त्रिताल ~
अब तो ऐसी बन आई,
राम-चरण बिन रह्यो न जाई ॥टेक॥
साँई को मिलबे के कारण,
त्रिकुटी संगम नीर नहाई ।
चरण - कमल की तहँ ल्यौ लागै,
जतन जतन कर प्रीति बनाई ॥१॥
जे रस भीना छावर जावै,
सुन्दरी सहजैं संग समाई ।
अनहद बाजे बाजन लागे,
जिह्वाहीणैं कीरति गाई ॥२॥
कहा कहूँ कुछ वरणि न जाई,
अविगति अंतर ज्योति जगाई ।
दादू उनको मरम न जानै, आप सुरंगे बैन बजाई ॥३॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव सत्संग का परिचय करा रहे हैं । हे संतों ! अब तो हमारी ऐसी अवस्था बन गई है कि राम जी के हृदय में तेजपुंज रूपी चरण हैं उनसे अब हमारी वृत्ति अलग नहीं होती ।
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हम प्रभु से मिलने के लिये मन, पवन, सुरति रूप त्रिकुटी के अन्दर नाम स्मरण रूप नीर से स्नान करते हैं । और हृदय कमल में ही, हमारी राम के चरणों में लय लगी है । ऐसी प्रीति प्रभु से, हमने यत्नपूर्वक बनाई है ।
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अब तो उनके प्रेम रूपी रस में, हमारा मन और पांचों ज्ञानेन्द्रियें मस्त हो गये हैं । इस प्रकार अन्तर्मुख वृत्ति रूप सुन्दरी स्वभाव से ही चैतन्य रूप परमेश्‍वर में एक रूप हो रही है । और अब अनहद ध्वनि ‘सोऽहं हंसो’ रूप हो रही है, रोम - रोम से । और बिना किसी जिह्वा के ही परमेश्‍वर के यश का गायन करते हैं ।
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क्या कहें ? उस आनन्द का कुछ वर्णन नहीं कर सकते । अन्तःकरण में जीव ब्रह्म की एकता रूप ज्ञानज्योति जगमगा रही है । परन्तु उसका मर्म कहिए रहस्य, कोई भी नहीं जान पाते ? आप स्वयं अपने आत्मीय जनों को अपने रंग में रंग कर अनहद वाणी रूप वेणु बजाकर सुनाते हैं ।
(क्रमशः)

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