रविवार, 14 दिसंबर 2014

*~ आमेर प्रसंग से आगे ~*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*~ आमेर प्रसंग से आगे ~*
फिर पास बैठे हुये धारु ने पू़छा - स्वामिन् ! आपने अभी परब्रह्म के स्वरूप संबन्धी विचार कहा किन्तु उस स्वरूप को आप कैसे देखते हैं ?
दादूजी ने -
२०४. निज स्थान निर्णय । झपताल
मध्य नैन निरखूं सदा, सो सहज स्वरूप ।
देखत ही मन मोहिया, है तो तत्त्व अनूप ॥टेक॥
त्रिवेणी तट पाइया, मूरति अविनाशी ।
जुग जुग मेरा भावता, सोई सुख राशी ॥१॥
तारुणी तट देखि हूँ, तहाँ सुस्थाना ।
सेवक स्वामी संग रहैं, बैठे भगवाना ॥२॥
निर्भय थान सुहात सो, तहँ सेवक स्वामी ।
अनेक जतन कर पाइया, मैं अन्तरजामी ॥३॥
तेज तार परिमित नहीं, ऐसा उजियारा ।
दादू पार न पाइये, सो स्वरूप सँभारा ॥४॥
यह २०४ का पद सुनाया । यह सुनकर धारु को संतोष हो गया ।
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फिर रुपा ने पू़छा - आसुर गुणों को नष्ट कैसे किया जाता है ? दादूजी ने कहा -
काया कबज कमान कर, सार शब्द कर तीर ।
दादू यह शर सांध कर, मारै मोटे मीर ॥३५॥
(शूरातन अंग २४)
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यह सुनकर रुपा मौन ही रहा तब रामदास ने पू़छा - भगवन् ! अच्छा सेवक कौन माना जाता है ? कृपा करके बाताइये । तब दादूजी ने कहा -
दादू सेवक सो भला, सेवे तन मन लाय ।
दादू साहिब छोड़कर, काहू संग न जाय ॥५६॥
(शूरातन अंग २४)
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फिर परमानन्द ने पू़छा - स्वामिन् ! काल से कैसे बचा जाय ? दादूजी ने कहा -
दादू मरिये राम बिन, जीजे राम सँभाल ।
अमृत पीवे आतमा, यू साधु बँच काल ॥
उक्त प्रकार आमेर में द्वितीय बार पधारने पर अच्छा सत्संग हुआ था ।

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