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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध) राग गौड़ी १(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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७९. दीपचन्दी ~
मेरा मन लागा सकल करा,
हम निशदिन हिरदै सो धरा ॥टेक॥
हम हिरदै मांही हेरा,
पीव परगट पाया नेरा ।
सो नेरे ही निज लीजै,
तब सहजैं अमृत पीजै ॥१॥
जब मन ही सौं मन लागा,
तब ज्योति स्वरूपी जागा ।
जब ज्योति स्वरूपी पाया,
तब अन्तर मांही समाया ॥२॥
जब चित्त हि चित्त समाना,
हम हरि बिन और न जाना ।
जाना जीवन सोई,
अब हरि बिन और न कोई ॥३॥
जब आतम एकै बासा,
पर आतम मांहि प्रकाशा ।
परकाशा पीव पियारा,
सो दादू मिंत हमारा ॥४॥
(इति राग गौड़ी सम्पूर्णः ॥१॥पद ७९॥)
(गावै राग गौड़ी, रोटी आवै दौड़ी ।)
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि जिस परमेश्वर ने इस सम्पूर्ण संसार की रचना की है, वही हमारे मन को प्रिय लगता है और अब हमने रात - दिन उसी को हृदय में धारण किया है,
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क्योंकि हमने अहंग्रह ध्यान द्वारा हृदय में खोजा तो, वह आत्म - स्वरूप परब्रह्म अति समीप हृदय में ही प्रत्यक्ष रूप से भान हो रहे हैं । हे जिज्ञासुओं ! तुम भी उसे उपरोक्त ध्यान द्वारा हृदय में ही प्राप्त करो, तो फिर अनायास ही जीव ब्रह्म की एकता रूप अमृत पीओगे ।
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जिस समय हमारा मन अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा परब्रह्म के नाम - स्मरण में लगा तो हमने उस परब्रह्म को ज्ञानमय ज्योति रूप से साक्षात्कार किया, फिर उसी में आभास रूप वृत्ति अभेद हो गई ।
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इस प्रकार व्यष्टि चित्त समष्टि चित्त में अभेद हुआ, तो फिर हम उस हरि के अतिरिक्त जो मायिक कार्य है, उसको सत्य नहीं जाना । और उस हरि को ही अपने जीव का जीवन जानकर निश्चय किया कि सत्य स्वरूप परमेश्वर के बिना और कुछ भी सत्य नहीं है ।
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जब आत्मा में वृत्ति स्थिर हुई, तो परमात्मा आत्मा रूप होकर ही प्रकाशने लगे । इस प्रकार वह मुख प्रीति का विषय पीव ही, हम मुक्त पुरुषों का मित्र है ।
रज्जब भजन भंडार में, दीरघ दौलत होइ ।
यहाँ सुखी संसार में, आगे आनन्द होइ ॥७९॥
सब ठाहिर सु उपाधि है, सुमरन में सु समाधि ।
रज्जब गुरु प्रसाद सों, सो ठाहर सुख लाधि ॥७९॥
(बांचे राग गौड़ी रोटी आवे दौड़ी ~ महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम तपोधाम श्री खेजड़ाजी ब्रह्मधाम नरेना जी, निवास श्री दादूपालकाँ धाम भैराणाजी, पो. विचूण, जि. जयपुर, राजस्थान)
इति राग गौड़ी टीका सहित सम्पूर्ण ॥१॥पद ७९॥
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