बुधवार, 3 दिसंबर 2014

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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध) राग गौड़ी १(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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६३. आत्मार्थी भेष । घट ताल ~
सोई सुहागिनी साच श्रृंगार,
तन मन लाइ भजै भर्तार ॥टेक॥
भाव भक्ति प्रेम ल्यौ लावै,
नारी सोई सार सुख पावै ॥१॥
सहज संतोष शील सब आया,
तब नारी नाह अमोलक पाया ॥२॥
तन मन जौबन सौंप सब दीन्हा,
तब कंत रिझाइ आप वश कीन्हा ॥३॥
दादू बहुरि वियोग न होई,
पीव सौं प्रीति सुहागिनी सोई ॥४॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव परमेश्‍वर की प्राप्ति में जो उपयोगी भेष है, उसे बतलाते हैं, जो अपने तन - मन को लगाकर परमेश्‍वर रूप पति की आराधना करती है, उसी संत आत्मा को सच्चा सुहाग प्राप्त होता है ।
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भाव के सहित प्रेमाभक्ति से, परमेश्‍वर में जो अखण्ड लय लगाती है, वही संत आत्मा परमेश्‍वर का दर्शन रूपी सार आनन्द को प्राप्त होती है ।
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जिस संत आत्मा के हृदय मे निर्द्वन्द्वता, संतोष, ब्रह्मचर्य आदि सद्गुण रहते हैं, तब वह संत आत्मा अमोलक अविनाशी रूप पति को हृदय में ही प्राप्त करती है ।
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उसने अपना तन और मन, अपनी यौवन अवस्था, ये सब परमेश्‍वर की आराधना में लगाकर, फिर वह संत आत्मा, परमेश्‍वर रूप पति को सेवाभक्ति के द्वारा प्रसन्न करके अपने वश में कर लेती है ।
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फिर उस संत आत्मा का परमात्मा रूप पति से, कभी वियोग नहीं होता । मुखप्रीति का विषय जो पीव है, उससे पूर्वोक्त प्रकार से, जिस संत आत्मा ने प्रीति की है, उसी ने अखण्ड सुहाग प्राप्त कर लिया है ।
(क्रमशः)

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