शनिवार, 6 दिसंबर 2014

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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध) राग गौड़ी १(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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६६. नटताल ~
भाई रे ऐसा पंथ हमारा,
द्वै पख रहित पंथ गह पूरा, 
अवरण एक अधारा ॥टेक॥
वाद - विवाद काहू सौं नांहीं, 
माहीं जगत तैं न्यारा ।
सम दृष्टि स्वभाव सहज में, 
आप ही आप विचारा ॥१॥
मैं तैं मेरी यहु मति नाहीं, 
निर्वैरी निरकारा ।
पूरण सबै देख आपा पर, 
निरालंब निरधारा ॥२॥
काहु के संग मोह न ममता, 
संगी सिरजनहारा ।
मनही मन सौं समझ सयाना, 
आनन्द एक अपारा ॥३॥
काम कल्पना कदे न कीजे, 
पूरण ब्रह्म पियारा ।
इहि पथ पहुँच पार गह दादू, 
सो तत सहज सँभारा ॥४॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि हे भाई ! हमारा पंथ कहिये मार्ग तो, ऐसा है जिसमें एक चैतन्य निरावरण परब्रह्म का ही आधार है ।
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फिर हिन्दू - मुसलमान आदि द्वैतपक्ष वहाँ नहीं है और न वहाँ जाति पति, वर्ण आश्रम ही है । उसको जो अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा ग्रहण करता है, पूर्ण ब्रह्म स्वरूप ही हो जाता है । फिर वह किसी से वाद विवाद नहीं करता । वह जगत में रहता हुआ भी जगत से अलग ही रहता है ।
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स्वभाव से ही उनकी समदृष्टि होती है और फिर अपने अन्तःकरण में आत्म - स्वरूप का विचार करता रहता है । उसमें फिर “मैं, तूँ आदि भेद बुद्धि नहीं रहती । वह प्राणीमात्र से निर्वैर होता है, और फिर अपने पराये सबमें निराकार पूर्ण ब्रह्म को देखता है ।
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इस प्रकार समत्वभाव को प्राप्त होकर, फिर उसकी किसी के साथ में भी मोह - ममता नहीं होती । फिर वह परमात्मा को ही अपना साथी जानता है ।
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ऐसा बुद्धिमान् विचार द्वारा अपने मन ही मन में समझकर कहिये, अद्वैत आनन्द को प्राप्त होता है और फिर संसार की कल्पनायें त्यागकर उपरोक्त मार्ग से संसार से पार होकर, परमप्रिय पूर्णब्रह्म का साक्षात्कार करता है ।
(क्रमशः)

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