सोमवार, 29 दिसंबर 2014

१८. शब्दसार को अंग ~ १

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*१८. शब्दसार को अंग* 
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*मनहर छंद ~*
*भूलयौ फिरै भ्रम तैं करत कछु और और,* 
*करत न ताप दूरि, करत संताप कौं ।* 
*दक्ष भयौ रहै पुनि दक्ष प्रजापति जैसे,* 
*देत परदक्षिनां, न दक्षिनां दे आपकौं ।* 
*सुन्दर कहत ऐसें जानै न जुगति कछु,* 
*और जाप जपै, न जपत निज जाप कौं ।* 
*बाल भयौ युवा भयौ वय बीतैं बृद्ध भयौ,* 
*बपुरूप होई कै बिसरि गयौ बाप कौं ॥१॥* 
*अविवेकीपूर्ण कर्म का निषेध* : यह जीव जगत्प्रपञ्चजाल के भ्रम में फँस कर कुछ अन्य का अन्य कार्य कर बैठता है, जिसे उसका कष्ट(सन्ताप) कम होना तो दूर, अपितु वह और अधिक वृद्धिंगत हो जाता है । 
जैसे राजा दक्ष स्वयं प्रजापति बनने के लिये ऐसे ही कार्य कर बैठा था । उसने अपने यज्ञ में दुसरे देवताओं को तो महत्व दिया, पर अपने घर के देवता(दामाद) शंकर की उपेक्षा की । 
महात्मा *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इस प्रकार, जो अविवेकी पुरुष कार्य की उचित पद्धति नहीं जानता, वह अन्य देवताओं का ही ध्यान करता है अपने देवता का ध्यान नहीं करता, वह इस प्रकार संकटग्रस्त हुआ करता है । 
तेरा बचपन तथा जवानी बीत गयी, अब सामने बुढ़ापा दिखायी दे रहा है । अब तूँ किसी का पिता बन कर अपने जनक परम परमात्मा को विस्मृत कर रहा है ॥१॥
(क्रमशः)

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