सोमवार, 8 दिसंबर 2014

१५. निर्गुण उपासना को अंग ~ २

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१५. निर्गुण उपासना को अंग*
*कोटिक बात बनाइ कहै कहा,*
*होत भया सब ही मन रंजन ।* 
*शास्तर संमृति बेद पुरान,*
*बखानत है अतिसै लुक अंजन ॥* 
*पानी मैं बूड़त पानी गाहे कत,*
*पार पहुंचत है मति भंजन ।* 
*सुन्दर तौ लग अंधे की जेवरी,*
*जौलौं न ध्याइ है एक निरंजन ॥२॥* 
ज्ञानविषयक विविध प्रकार की करोड़ों आलंकारिक बातें कहकर भी क्या उन्हें श्रद्धालु जनता के हृदय में उतारा जा सकता है । 
अनेक शास्त्र, स्मृति, वेद पुराण भी आँखों को चकाचौंध करने वाले तद्विषयक व्याख्यान ही सुना रहे हैं । 
क्या जल में डूबने वाला कोई मूर्ख जल को पकड़ कर जल के पार पहुँच सकता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* की दृष्टि में ये ज्ञानियों की बातें, तथा शास्त्रों के व्याख्यान तब तक अन्धे की रस्सी ही कहलायेंगे जब तक उस एक निरंज्जन निराकार का ध्यान नहीं किया जायगा ! ॥२॥
(क्रमशः)

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